Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
कः पुनः क्रमः किं वा यौगपद्यम् : यदास्तित्वादिधर्माणां कालादिभिर्भेदविवक्षा तदैकस्य शब्दस्यानेकार्थप्रत्यायने शक्त्यभावात् क्रमः । यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदैकेनापि शद्धेनैकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकतामापन्नस्यानेकाशेषरूपस्य प्रतिपादनसम्भवाद्यौगपद्यम् ।
फिर प्रश्न है कि जैनोंका माना हुआ क्रम क्या है ? और युगपत्पना क्या पदार्थ है ? इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि जिस समय अस्तित्व, नास्तित्व, आदि धर्मोकी काल, आत्मरूप, आदि करके भेदकी त्रिवक्षा हो रही है, तब एक शद्बकी भिन्न भिन्न अनेक अर्थोके समझानेमें शक्ति नहीं है । अतः क्रम माना जाता है । किन्तु जब उन्हीं धर्मोका काल आदि करके अभेद होनेसे आत्मस्वरूप दृढ कर लिया गया कहा जाता है । तब तो एक शद्ब करके भी एक धर्मका समझाना मुख्य कर उस एक धर्मके साथ तादात्म्यको प्राप्त हो रहे शेषरहित सम्पूर्ण धर्मस्वरूप वस्तुका निरूपण करना सम्भव है । अतः युगपत्पना कहा जाता है । अर्थात् भेदविवक्षा करनेपर एक एक धर्मका एक एक शब्द द्वारा क्रमसे कथन होता है और अभेद विवक्षा करनेपर एक शद्व द्वारा अनन्तधर्मात्मक वस्तुका एक ही समयमें युगपत् निरूपण हो जाता है ।
के पुनः कालादयः कालः, आत्मरूपं, अर्थः, सम्बन्धः, उपकारो, गुणिदेशः, संसर्गः, शब्द, इति । तत्र स्याज्जीवादि वस्तु अस्त्येव इत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्कालाः शेषानन्तधर्मा वस्तुन्येकत्रेति, तेषां कालेनाभेदवृत्तिः । यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपं तदेवान्यानन्तगुणानामपीत्यात्मरूपेणाभेदवृत्तिः । य एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवान्यपर्यायाणामित्यर्थेनाभेदवृत्तिः । य एवाविष्वग्भावः कथंचित्तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धोऽस्तित्वस्य स एवाशेषविशेषाणामिति सम्बन्धेनाभेदवृत्तिः । य एव चोपकारो ऽस्तित्वेन स्वानुरक्तकरणं स एव शेषैरपि गुणैरित्युपकारेणाभेदवृत्तिः । य एव च गुणिदेशोऽस्तित्वस्य स एवान्यगुणानामिति गुणिदेशेनाभेदवृत्तिः । य एव चैकवस्त्वात्मना - स्तित्वस्य संसर्गः स एव शेषधर्माणामिति संसर्गेणाभेदवृत्तिः । य एव वास्तीतिशद्धोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एव शेषानन्तधर्मात्मकस्यापीति शद्धेनाभेदवृत्तिः । पर्यायार्थे गुणभावे द्रव्यार्थिकत्वप्राधान्यादुपपद्यते ।
भेद या अभेद अवच्छेदक वे काल आदिक फिर कौन हैं ? इसका उत्तर यों है कि काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग, और शब्द इस प्रकार आठ हैं । तिन आठों में जीव आदिक वस्तु कथंचित् है ही। इस प्रकार इस पहिले भंगमें जो ही अस्तित्वका काल है, वस्तुमें शेष बचे हुए अनन्त का भी वही काल है । इस प्रकार उन अस्तित्व, नास्तित्व, आदि धर्मोकी कालकी अपेक्षासे अभेदवृत्ति हो रही है, तथा सम्पूर्ण अस्तित्व आदि गुण उस एक ही वस्तुके हैं । जैसे एक माता के चार पुत्रोंमें सहोदरपना सम्बन्ध है । जो ही उस वस्तुके गुण होजाना ( धर्मपना )
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