Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यकोकवार्तिक
यदि पुनरस्तित्वादिधर्मसप्तकमुखेनाशेषानन्तसप्तभंगीविषयानन्तधर्मसप्तकस्वभावस्य वस्तुनः कालादिभिरभेदवृत्त्याभेदोपचारेण प्रकाशनात्सदादिसप्तविकल्पात्मकवाक्यस्य सकलादेशत्वसिद्धिस्तदा स्यादस्त्येव जीवादिवस्त्वित्यस्य सकलादेशत्वमस्तु । विवक्षितास्तित्वमुखेन शेषानन्तधर्मात्मनो वस्तुनस्तथावृत्त्या कथनात् । स्यानास्त्येवेत्यस्य च नास्तित्वमु
खेन, स्यादवक्तव्यमेवेत्यस्यावक्तव्यत्वमुखेन, स्यादुभयमेवेत्यस्य च क्रमार्पितोभयात्मकत्वमुखेन, स्यादस्त्यवक्तव्यमेवेत्यस्य चास्त्यवक्तव्यमुखेन, स्यानास्त्यवक्तव्यमेवेत्यस्य च नास्त्यवक्तव्यत्वमुखेन स्यादुभयावक्तव्यमेवेत्यस्य चोभयावक्तव्यत्वमुखेनेति प्रत्येकं सप्तानामपि वाक्यानां कुतो विकलादेशत्वम?
यदि फिर किसीका यह विचार हो कि अस्तित्व आदि सातों धर्मकी प्रमुखतासे शेष बचे हुए अनन्त सप्तभंगियोंके विषयभूत अनन्त संख्यावाले सातों धर्मस्वरूप वस्तुका काल, आत्मरूप, आदि द्वारा अभेदवृत्ति या भेदउपचार करके प्ररूपण होता है । इस कारण अस्तित्व, नास्तित्व, आदि सप्तभेद स्वरूप वाक्यको सकलादेशपना सिद्ध हो जाता है। ऐसा विचार होनेपर हम कहेंगे कि तब तो " स्यात् अस्ति एव जीवादि वस्तु " किसी अपेक्षासे जीवादि वस्तु है ही। इस प्रकार इस एक भंगको सकलादेशपन हो जाओ ! क्योंकि विवक्षा किये गये एक अस्तित्व धर्मकी प्रधानता करके शेष बचे हुए अनन्तधर्मस्वरूप वस्तुका तिस प्रकार अभेदवृत्ति या अभेद उपचारसे कथन कर ही दिया गया है और " स्यातन्नास्ति एव" इस अकेले वाक्यको भी सकलादेशीपन हो जाओ । यहां नास्तित्वके मुखकर पूर्णाग वस्तुका कथन कर दिया है। तीसरा भंग कथञ्चित् अवक्तव्य ही है। यहां अवक्रव्यको मुख्यंकर साग वस्तुका प्ररूपण किया है । चौथे " स्यात् उभय " ही है । इस वाक्यको क्रमसे विवक्षित किये गये उभयस्वरूपपन धर्मकी मुख्यतासे सकलादेशपन हो जाओ । एवं स्यात् ( कथंचित् ) अस्ति होकर अवक्तव्य ही है । इस पांचवें अकेले भंगको ही अस्ति अवक्तव्यपन मुख करके सम्पूर्ण वस्तुका प्रतिपादकपन होनेका कारण सकलादेशत्व हो जाओ । और छठे " कथञ्चित् नास्ति होकर अवक्तव्य ही है।” ऐसे इस वाक्यको नास्त्यवक्तव्यपन धर्मकी प्रमुखतासे पूरे वस्तुका निरूपकपना है । अतः यह अकेला छठा वाक्य सकलादेश बन बैठो । तथा कथञ्चित् अस्ति नास्तिका उभय होकर अवक्तव्य ही है । इस सातवें भंगको उभयावक्तव्यपन धर्मकी प्रमुखतासे सर्वांग वस्तुका कथक्कड होनेके कारण सकलादेश वाक्यपन प्राप्त हो जायगा । इस प्रकार प्रत्येक प्रत्येक सातों भी वाक्योंको क्यों विकलादेशपन है ? अकेले अकेले भी ये वाक्य अभेदरूपसे जब पूर्ण वस्तुको प्रतिपादन कर रहे हैं, तब तो आपके विचारानुसार सकलादेश कहे जाने चाहिये ।
प्रथमेनैव वाक्येन सकलस्य वस्तुनः कथनात् द्वितीयादीनामफलत्वमिति चेत्, तदाप्येकसप्तभंग्या सकलस्य वस्तुनः प्रतिपादनात् परासां सप्तभंगीनामफलत्वं किं न भवेत् ?