Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तचाचन्तामणिः
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प्रधानभावेन स्वविषयधर्मसप्तकस्वभावस्यैवार्थस्यैकया सप्तभंग्या प्रकथनात्, स्वगोचरधर्मसप्तकान्तराणामपराभिः सप्तभंगीभिः कथनान्न तासामफलत्वमिति चेत्, तर्हि प्रथमेन वाक्येन स्वविषयैकधर्मात्मकस्य वस्तुनः प्रधानभावेन कथनात् द्वितीयादिभिः स्वगोचरैकर्मात्मकस्य प्रकाशनात् कुतस्तेषामफळता ?
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पहिले ही " स्यात् अस्ति एव इस वाक्य करके जब सम्पूर्ण वस्तुका कथन किया जा चुका है तो दूसरे आदि छह वाक्य निष्फल हैं । इस प्रकार यदि कहोगे तो भी एक सप्तभंगी करके ही सम्पूर्ण वस्तुका निरूपण हो जाता है । ऐसी दशा में अन्य सप्तभंगियोंका कथन करना निष्फल क्यों न होगा ? इसपर कोई यदि यों कहे कि अपने अपने विषयभूत सातों धर्मस्वरूप अर्थका प्रधानरूपसे एक सप्तभंगी करके स्पष्ट कथन किया जाता है और अपने विषय दूसरे दूसरे सात धर्मोका न्यारी न्यारी अन्य सप्तभंगियों करके कथन किया जाता है । अतः उन अनेक सप्तभंगियोंका व्यर्थपन नहीं है । वे अपने अपने नियत धर्मोको मुख्यरूपसे कथन करनेकी अपेक्षासे सफल हैं । ऐसा कहनेपर तो हम भी कह देंगे कि ठीक है, पहिले वाक्य करके अपने विषय एक धर्मस्वरूप वस्तुका प्रधानरूपसे निरूपण किया गया है और दूसरे तीसरे आदि वाक्योंने मुख्यता से अपने अपने विषय एक एक धर्मस्वरूप वस्तुका कथन किया है । अतः तिन छह वाक्योंको भी निष्फलता कैसे हुयी ? वे भी तो अपने एक एक विषयको प्रधानरूपसे कह रहे हैं । न्याय एकसा होना चाहिये ।
कथं पुनरर्थस्यैकधर्मात्मकत्वं प्रधानं तथा शद्वेनोपात्तत्वात् शेषानन्तधर्मात्मकत्वमप्येवं प्रधानमस्त्विति चेन्न, तस्यैकतो वाक्यादश्रूयमाणत्वात् । कथं ततस्तस्य प्रतिपत्तिः अभेदवृत्त्याभेदोपचारेण वा गम्यमानत्वात् ।
आचार्य महाराजके प्रति किसीका प्रश्न है कि फिर यह तो बताओ कि अनन्तधर्मस्वरूप अर्थका एक धर्मात्मकपना ही प्रधानस्वरूप कैसे है ? उस धर्मके सहोदरपन सम्बन्धसे अन्य अनेक धर्म भी तो प्रधान हो सकते हैं। इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं कि हम क्या करें ? तिस प्रकार . एक शद करके एकधर्मस्वरूप वस्तुका ही प्रधानरूपसे ग्रहण होता है । इसपर प्रश्नकर्त्ता यदि यों कहे कि इस प्रकार तो बचे हुए अनन्त धर्मोसे तदात्मकपना भी वस्तुका प्रधानरूपसे कहा जाओ । आचार्य कहते हैं कि सो कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि उस अनन्तधर्मस्वरूप वस्तुका पूर्ण अंगरूपसे एक वाक्यके द्वारा कहकर सुनाया जाना नहीं हो सकता है । भावार्थ — द्रव्य कहनेपर केवल द्रव्यत्व गुणका निरूपण होता है । वस्तु कहने से वस्तुत्वका, सत् कहने से अकेले अस्तित्व गुणका और प्रमेय कहनेसे केवल प्रमेयत्व गुणका ही श्रोता द्वारा ज्ञान किया जाता है । फिर प्रश्नकर्त्ता पूंछता है कि तिस एक ही धर्मके प्रतिपादक शद्वसे भला उस सर्वांग वस्तुकी प्रतीति कैसे होगी ? इसका उत्तर आचार्य कहते हैं कि अभेदवृत्ति या अभेद उपचार करके पूर्ण वस्तु जान