Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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अस्तित्वका अपना स्वरूप है, वही उस वस्तुके गुण होजानापना अन्य अनन्तगुणोंका भी आत्मीयरूप है । वस्तुनिष्ठधर्मितानिरूपितधर्मतावत्त्वं । गुणीवस्तुके आत्मीयरूप अस्तित्व आदि सभी गुण एकसे हैं । इस प्रकार आत्मीय स्वरूपकरके अनन्तधर्मोकी परस्परमें अभेदवृत्ति है २ । तथा जो ही आधार होरहा द्रव्य नामक अर्थ अस्तित्व धर्मका है, वही द्रव्य अन्य पर्यायोंका भी आश्रय है। इस प्रकार एक आधाररूप अर्थपनेसे सम्पूर्ण धर्मोके आधेयपनेकी वृत्ति हो रही है ३ । एवं जो ही पृथक् पृथक् नहीं किया जासकनारूप कथंचित् तादात्म्यस्वरूप सम्बन्ध अस्तित्वका है। वही अविष्वग्भाव सम्बन्ध बचे हुए सम्पूर्ण विशेष अंशोंका भी है । इस ढंगसे सम्बन्ध द्वारा सम्पूर्ण धर्मोका वस्तुके साथ अभेद वर्त्त रहा है ४ । और जो ही अपने अस्तित्वसे वस्तुको अपने अनुरूप रंगयुक्तकर देनारूप उपकार अस्तित्व धर्मकरके होता है, वे ही अपने अपने अनुरूप वस्तुको रंग देना स्वरूप उपकार बचे हुए अन्य गुणों करके भी किया जाता है । इस प्रकार उपकार करके सम्पूर्ण धर्मोंका परस्परमें अभेद वतरहा है ५। तथा जो ही गुणी द्रव्यका देश अस्तित्व गुणने घेर लिया है, वही गुणीका देश अन्य गुणोंका भी निवास स्थान है। इस प्रकार गुणिदेशकरके एक वस्तुके अनेक धर्मोकी अभेदवृत्ति है। जैसे कि दश औषधियोंको घोटकर बनायी गयी गोलीके छोटेसे खण्डमें भी दशों औषधियां हैं ६। और जो ही एक वस्तु स्वरूप करके अस्तित्व धर्मका संसर्ग है, वही शेष धर्मोंका भी संसर्ग है,। इस रातिसे संसर्ग करके अभेदवृत्ति हो रही है। पहिला तादात्म्य सम्बन्ध धर्मोकी परस्परमें योजना करने वाला था और यह संसर्ग एक वस्तुमें अशेषधर्मोको ठहरानेवाला है । इसी प्रकार अर्थ पदसे लम्बा चौडा अखण्डवस्तु पूरा लिया गया है और गुणिदेशसे अखण्ड वस्तुके कल्पित देशांश ग्रहण किये गये हैं ७ । तथा जो ही अस्ति यह शब्द अस्तित्व धर्मस्वरूप वस्तुका वाचक है वही शब्द बचे हुये अनन्त धर्मोके साथ तादात्म्य रखनेवाली वस्तुका भी वाचक है। इस प्रकार शब्दके द्वारा सम्पूर्ण धर्मोकी एक वस्तुमें अभेदरूप प्रवृत्ति हो रही है ८। यह अभेद व्यवस्था पर्यायस्वरूप अर्थको गौण करनेपर और गुणोंके पिण्डरूप. द्रव्य पदार्थको प्रधान करनेपर प्रमाण द्वारा बन जाती है। द्रव्यदृष्टिसे सभी गुण, स्वभाव, अंश, पर्यायों और कल्पित धर्मोमें अभेद फैला हुआ दीखता है । कोई पर्यायार्थिक नयको गौणकर और द्रव्यार्थिक नयको प्रधान करते हुये अभेद साध लेते हैं। . द्रव्यार्थिक गुणभावेन पर्यायार्थिकमाधान्ये तु न गुणानां कालादिभिरभेदवृत्तिः अष्टधा सम्भवति । प्रतिक्षणमन्यतोपपत्तेभिन्नकालत्वात् । सकृदेकत्र नानागुणानामसम्भवात् । सम्भवे वा तदाश्रयस्य तावद्वा भेदमसंगात् । तेषामात्मरूपस्य च भिन्नत्वात् तदभेदे तद्भेदविरोधात् । स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात् अन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् । सम्बन्धस्य च सम्बन्धिभेदेन भेददर्शनात् नानासम्बन्धिभिरेकत्रैकसम्बन्धाघटनात्