Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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किन्तु तैसा अर्थ जो शद्वसे प्रतीत हो रहा है । वह किस प्रकारके शद्वसे प्रतीत होगा ? इस प्रकार शद्वजन्य व्यवहारका विचार करनेपर तो स्यात् ऐसे अर्थद्योतक निपातका प्रयोग करना चाहिये । अर्थात् स्यात् शद्वके होनेपर ही परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों करके अस्तित्व प्राप्त होनेका प्रस्ताव नहीं आपाता है । यदि स्यात् न होता तो सभी प्रकारोंसे परकीय अस्तित्व आपादनको कौन बचा सकता था ? पदार्थोंके पेटमें अन्योन्याभाव अत्यन्ताभाव तदात्मक हो रहे हैं। तभी तो सर्वात्मकता सर्वाधारारूप साङ्कर्य नहीं हो पाता है । अन्यथा अपना अपना पता पाना ही असम्भव हो जाता । देवदत्तका शरीर अपने अंग उपांगोंमें तभी स्थिर रह सकता है, जब कि परकीय अंग उपांगोंके सम्मिश्रण करनेका उसमें परिणाम नहीं होता है। अदादि गणकी " अस भुवि " धातुसे लिङ् लकारमें प्रथम पुरुषका एक वचन स्यात् बनता है । यह स्यात् निपात उसके सादृश्यको रखनेवाला लिङन्त प्रतिरूपक अव्यय है । जैसे कि रात्रौ हेतौ ये सप्तमी विभक्तिके पदको अनुकरण वाले सुबन्त प्रतिरूपक अव्यय हैं । विहायसा, अन्तरेण, उच्चैः, नचैिः ये तृतीयान्त प्रतिरूपक अव्यय हैं । प्रकृति और प्रत्ययके योगकर साधे गये तिङन्त, सुबन्त पदोंसे अनादिसिद्ध अव्युत्पन्न अव्यय - पद न्यारे हैं ।
केन पुनः शद्धेनोक्तोनेकान्तः ? स्यात्कारेण द्योत्यत इति चेत्, सदैव सर्वमित्यादिवाक्येनाभेदवृत्त्याऽभेदोपचारेण वेति ब्रूमः । सकलादेशो हि यौगपद्येनाशेषधर्मात्मकं वस्तुकालादिभिरभेदवृत्त्या प्रतिपादयत्यभेदोपचारेण वा तस्य प्रमाणाधीनत्वात् । विकलादेशस्तु क्रमेण भेदोपचारेण भेदप्राधान्येन वा तस्य नयायत्तत्वात् ।
आप जैन फिर यह बतलाओ कि किस शब्द करके कहा गया अनेकान्त स्यात् इतने शद्वसे द्योतित कर दिया जाता है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर तो हम स्पष्ट उत्तर कहते हैं कि सम्पूर्ण पदार्थ सत् ही हैं इत्यादि वाक्यों करके अभेद सम्बन्धसे अथवा अभेदके व्यवहारसे अनेकान्त कहा जाता है। यानी अभेदवृत्ति होनेके कारण एक धर्मके प्रतिपादक शद्वसे अनेक धर्म कह दिये जाते हैं । सम्पूर्ण वस्तुको कथन करनेवाला सकलादेश वाक्य तो काल, आत्मरूप आदि करके अभेदवृत्ति या अभेदके उपचारसे स्वकीय सम्पूर्ण धर्मोके साथ तादात्म्यको रखनेवाली वस्तुका युगपत् ( एकदम से ) प्रतिपादन कर देता है । क्योंकि वह सकलादेश वाक्य प्रमाणके अधीन होरहा बोला जाता है । भावार्थ - प्रमाण वस्तुके सम्पूर्ण अंशोंको जानता है। उन अंशोंका वस्तुके साथ काल आदिकी . अपेक्षा से तादात्म्य सम्बन्ध हो रहा है । सम्पूर्ण अंशोंका परस्पर में निश्चय और व्यवहारसे द्रव्यरूप करके अभेद वर्त रहा है । और वस्तुके एक अंशको कहनेवाला विकलादेश तो भेदके उपचार से या भेदकी प्रधानता क्रमक्रम करके अशेष धर्मस्वरूपवस्तुको कहता है । क्योंकि उस विकलादेश वाक्यकी प्रवृत्ति नयोंके अधीन है। नयज्ञान क्रमसे एक एक अंशको कहता हुआ ही भिन्नभिन्न वस्तुके अंशोंको दीर्घकालमें कह सकता है । युगपत् नहीं ।