Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
कर्ता, करण और भावसे साधे गये ज्ञायकत्वं, ज्ञानत्व और ज्ञप्तिपन इन अज्ञेयोंको युट् प्रत्यय वाले ज्ञानस्वरूपकी सिद्धि भला कैसे होगी ? भावार्थ --जो अज्ञेय है, वह ज्ञानस्वरूप कैसे सिद्ध होगा ? ऐसा प्रश्न होनेपर तो हम भी पूंजेंगे कि जानने योग्य ज्ञेयको कर्ममें युट् प्रत्यय करनेपर ज्ञानपना कैसे सिद्ध होगा ? तुम्ही बताओ ! इसपर तुम यदि यों कहो कि जाने गये ज्ञानको तो स्वतः ही ज्ञानरूपता सिद्ध है । ऐसा कहनेपर तो दूसरों में भी यानी ज्ञायक, करणज्ञान और ज्ञप्तिमें भी समानरूपसे अपने आप ज्ञानरूपता सिद्ध हो जाती है । जिस ही प्रकार कि ज्ञान ज्ञेयपनेसे स्वयं निश्चयसे प्रकाश रहा है, तिस ही प्रकार वह ज्ञान ज्ञायक ज्ञप्तिजनक और ज्ञप्तिरूपसे भी स्वयं प्रकाशित हो रहा है । कोई अन्तर नहीं है । यदि कोई यों कहे कि दूसरे जानने योग्य आदि अर्थोकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले ज्ञानके ज्ञायकत्व, ज्ञानत्व आदि स्वरूप भला उस ज्ञानके कैसे कहे जायेंगे ? ऐसा आक्षेप करनेपर तो हम भी कहेंगे कि, ज्ञायक, ज्ञप्ति, और ज्ञानकी नहीं अपेक्षा रखनेवालेके ज्ञेयपना भी कैसे माना जा सकता है ? बताओ ! यदि कोई ज्ञानाद्वैतवादी यों कहे कि ज्ञान न तो स्वयं अपने आप ज्ञेयस्वरूप है और ज्ञायक, ज्ञान, ज्ञप्तिरूप भी नहीं है । क्योंकि सभी प्रकारोंसे व्याघात है । यानी ज्ञानके शुद्ध पूर्ण शरीरमें ज्ञायकपन और ज्ञेयपन धर्मके लिए स्थान नहीं है । यदि ज्ञायकपना या ज्ञेयपना माना जायगा तो ज्ञानपना नहीं ठहर सकेगा । किन्तु वह ज्ञान सर्वांगज्ञानरूपसे ज्ञानस्वरूप ही है । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि उन ज्ञायक आदि स्वरूपोंके न माननेपर उस ज्ञान स्वरूपके भी अभाव हो जानेका प्रसंग हो जायगा। ज्ञान स्वयं अपनेको अपनेसे जानता हुआ ही ज्ञान बना बैठा है । अन्यथा नहीं । दूसरी बात यह है कि यदि ज्ञानको ज्ञानस्वरूपपनेका ही सद्भाव माना जायगा तो भी वह ज्ञान ज्ञेयपदका व्यवच्छेद्य सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार व्यवच्छेदके सद्भाव होनेपर ज्ञेयपदको सार्थकपना ही है।
ज्ञानं हि स्याद् ज्ञेयं स्याद् ज्ञानम् । अज्ञानं तु ज्ञेयमेवेति स्याद्वादिमते प्रसिद्धं सिद्धमेव कथञ्चित्तव्यवच्छेद्यं । न च ज्ञानं स्वतः परतो वा, येन रूपेण ज्ञेयं तेन ज्ञेयमेव येन तु ज्ञानं तेन ज्ञानमेवेत्यवधारणे स्याद्वादिविरोधः, सम्यगेकान्तस्य तथोपगमात् । नाप्यनवस्था। परापरज्ञानज्ञेयरूपपरिकल्पनाभावात् तावदेव कस्यचिदाकांक्षानिवृत्तेः । साकांक्षस्य तु तत्र तत् रूपान्तरकल्पनायामपि दोषाभावात् सर्वार्थज्ञानोत्पत्तौ सकलापेक्षापर्यवसानात् । पराशं'कितस्य वा सर्वस्याज्ञेयस्य व्यवच्छेद्यत्ववचनान्न ज्ञेयपदास्यानर्थकत्वम् । सर्वपदं धादिसंख्यापदं वानेन सार्थकमुक्तमसर्वस्यायादेश्च व्यवच्छेद्यस्य सद्भावात् । न ह्यसर्वशद्धाभिधेयानां समुदायिनां व्यवच्छेदे तदात्मनः समुदायस्य सर्वशद्धवाच्यस्य प्रतिषेधादिष्टापवादः सम्भवति, समुदायिभ्यः कथञ्चिद्भेदात्समुदायस्य । नाप्ययादीनां प्रतिषेधे यादिविधानविरोधः परमसंख्यातोऽल्पसंख्यायाः कथञ्चिदन्यत्वात् । तदेवं विवादापन्नं केवलं पदं सव्यवच्छेद्यं