Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामाणः
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ज्ञेयं ज्ञानमिति चेत् न, ज्ञायकस्य रूपस्य कर्तृसाधनेन ज्ञानशद्धेन वाच्यस्य करण साधनेन वा साधकतमस्य भावसाधनेन च क्रियामात्रस्य कर्मसाधनेन प्रतीयमानाद्रूपानेदेन प्रसिद्धरज्ञेयत्वोपपत्तेः। ___पहिले आपने कहा था कि ज्ञेय आदि पदके समान केवल पदका कोई व्यवच्छेद्य नहीं है । अतः केवल पद बोलना निरर्थक है, सो यह व्यवच्छेद्यका अभाव कहना असिद्ध है । क्योंकि केवल ज्ञेय पदको अज्ञेयके व्यवच्छेद करके अपने अर्थके निश्चय करनेका हेतुपना प्राप्त है । अज्ञेयसे यहां ज्ञान पकडा जाता है । ज्ञानसे भिन्न ज्ञेय होता है । जब कि सम्पूर्ण ही वस्तुएं ज्ञान और ज्ञेय इस प्रकार दो महान् राशिपनेसे व्याप्त होकर जगत्में अवस्थित हो रही हैं, तब ज्ञेयके कथञ्चित् भिन्नताको धारण कर रहा ज्ञान अज्ञेयरूपसे प्रसिद्ध ही है । तिस कारण ज्ञेयपदका वह ज्ञान पदार्थ भला व्यवच्छेद्य होता हुआ कैसे निराकृत किया जा सकता है ? यदि फिर तुम्हारा यह मत हो कि ज्ञान भी तो स्वयं अपने आपसे जाना जाता है । अतः अज्ञेय नहीं है, किन्तु ज्ञेय ही है । ऐसी दशामें ज्ञेयका व्यवच्छेद्य ज्ञान नहीं हुआ, तब तो हम कहेंगे कि जब सभी पदार्थ ज्ञेय हो गये तो सभी प्रकार ज्ञान पदार्थके न होनेसे ज्ञेयकी व्यवस्था करना काहेसे कहोगे । बताओ ! यदि तुम यों कहो कि अन्य पदार्थोकी तो दूसरे ज्ञानसे ज्ञेय व्यवस्था करली जायगी । और वह ज्ञान स्वयं अपने आपसे ज्ञेय हो जायेगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि ऐसा माननेपर तो ज्ञेयसे ज्ञान भिन्न सिद्ध हो जाता है । ज्ञा धातुसे कर्ता, करण, भाव, और कर्ममें युट् प्रत्यय कर ज्ञान शब्द बनाया जाता है । कर्तामें साधे गये ज्ञान शबसे ज्ञायक आत्माका स्वरूप वाच्य होता है । जानातीति ज्ञानं और करणमें निरुक्ति कर साधे गये ज्ञान शब्द करके ज्ञप्तिक्रियाका प्रकृष्ट उपकारक स्वरूप वाच्यअर्थ होता है ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं । तथा भावमें साधे गये ज्ञान शब्दसे केवल ज्ञप्तिरूप क्रियावाच्य होती है ज्ञायते ज्ञानमात्रं वा ज्ञानं । एवं कर्ममें प्रत्यय कर साधन किये गये ज्ञान पदसे ज्ञेयअर्थ वाच्य होता है ज्ञायते यत् तज्ज्ञानं । प्रकरणमें कर्मसे साधे गये ज्ञेयरूपसे. कर्ता, करण और भावमें साधा गया ज्ञान भिन्न होकर प्रसिद्ध हो रहा है। अतः उस ज्ञानको अज्ञेयपना बन गया । वह ज्ञान केवल ज्ञेयपदका व्यवच्छेद्य हो जाता है । कोई क्षति नहीं है ।
कथमज्ञेयस्य ज्ञायकत्वादेर्शानरूपस्य सिद्धिः ? ज्ञायमानस्य कुतः ? स्वत एवेति चेत्, परत्र समानम् । यथैव हि ज्ञानं ज्ञेयत्वेन स्वयं प्रकाशते तथा ज्ञायकत्वादिनापि विशेषाभावात् । ज्ञेयान्तराद्यनपेक्षस्य कथं ज्ञायकत्वादिरूपं तस्येति चेत् ज्ञायकाद्यनपेक्षस्य ज्ञेयत्वं कथम् ? स्वतो न ज्ञेयरूपं नापि ज्ञायकादिरूपं ज्ञानं सर्वथा व्याघातात् किन्तु ज्ञानस्वरूपमेवेति चेन्न, तदभावे तस्याप्यभावानुषंगात् । तद्भावेऽपि च सिद्धं ज्ञेयपदस्य व्यवच्छेद्यमिति सार्थकत्वमेव ।
वा