Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थ छोकवार्तिके
कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि ऐसे उस विशेषके होते हुए भी तिस प्रकार से स्पष्ट विभाग नहीं किया जा सकता है । किसको किसकी अपेक्षा है, ऐसा नियम तो आजतक कोई हुआ नहीं है । जो पद वाक्यके अर्थको निरूपण करनेमें स्वयं तो सर्वथा असमर्थ माने गये हैं, उनमें अन्य पदों की अपेक्षा होते हुए भी कोई नवीन सामर्थ्य नहीं बन सकती है । अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात् केवल अग्नि या जल शद्वकी किसी भी अर्थ के प्रतिपादन करने में यदि गांठकी शक्ति न मानी जायगी तो " अग्निना सिञ्चति, जलेन दहति " यहां सींचने पदकी अपेक्षासे अग्नि पदका अर्थ जल हो जाओ और दूसरे दाह पदकी अपेक्षासे जल शद्वका अर्थ आग हो जाओ ! जो कि इष्ट नहीं है । यदि कोई यों कहें कि उस समय वाक्यकी अवस्था में उस वाक्यार्थ के प्रतिपादन करने की सामर्थ्य युक्तपने से उन पदोंकी नवीन उत्पत्ति हो जाती है । अतः केवल अवस्थाके पद से उन मिले हुए पदोंकी विशेषता है । ऐसा कहनेपर तो वाक्य ही वाक्यके अर्थको प्रकाश करनेमें समर्थ है, यह सिद्ध हुआ । तिस प्रकार एक दूसरेकी आकांक्षा रखते हुए मिलकर परिणति करनेवाले अनेक पोंके समुदायको वाक्यपनेका व्यवहार है । उनका पदरूपसे व्यवहार नहीं होता है । इस कारण जितना अर्थ पदका निकले, उतने अर्थसे वह पद अर्थवान् है ।
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यदि पुनरवयवार्थेनानर्थवत्त्वं केवलानां तदा पदार्थाभाव एव सर्वत्र स्यात् । ततोऽन्येषां पदानामभावात् । वाक्येभ्योपोद्धृत्य कल्पितानामर्थवत्वं न पुनरकल्पितानां केवलानामिति ब्रुवाणः कथं स्वस्थः !
यदि फिर तुम अवयवरूप स्वकीय अर्थसे भी केवल पदोंके अर्थवान् न मानोगे, तब तो सब स्थानोंपर पदके अर्थका अभाव ही हो जावेगा । क्योंकि खण्डरूप अवयव अर्थोंको कहनेवाले उन पदोंसे अतिरिक्त दूसरी जातिके पदोंका अभाव है । अवयवकी शक्तियोंसे ही अवयव की शक्ति बनती है । जलबिन्दुओंके समुदायसे समुद्र बन जाता है । वाक्योंसे हटाकर उसीमें कल्पना कर लिये गये न्यारे न्यारे पदोंको तो अर्थवान् माना जाय, किन्तु फिर नहीं कल्पना किये गये मुख्य अकेले केवल पदोंको अर्थवान् न माना जाय । इस प्रकार कहनेवाला वादी कैसे स्वस्थ कहा जा सकता है ? भावार्थ - केवल पदोंके सार्थक होते हुए ही वाक्यप्राप्त पदोंको सार्थकपना आसकता है । अन्यथा नहीं | यही नीरोग अवस्था (होश ) की बातें हैं । मीमांसकोंको अपने वाचक पदके अनुसार यथार्थनामा होकर अधिक विचारशाली होना चाहिये ।
व्यवच्छेद्याभावश्चासिद्धः केवलज्ञेयपदस्याज्ञेयव्यवच्छेदेन स्वार्थनिश्चयनहेतुत्वात् । सर्व हि वस्तु ज्ञानं ज्ञेयं चेति द्वैराश्येन यदा व्याप्तमवतिष्ठते तदा ज्ञेयादन्यतामादधानं ज्ञानमज्ञेयं प्रसिद्धमेत्र ततो ज्ञेयपदस्य तद्व्यवच्छेद्यं कथं प्रतिक्षिप्यते ? यदि पुनर्ज्ञानस्यापि स्वतो ज्ञायमानत्वान्नाज्ञेयत्वमिति मतं, तदा सर्वथा ज्ञानाभावात् कुतो ज्ञेयव्यवस्था ? स्वतो