Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
अन्यथा पुनरुक्त होनेका प्रसंग है । तात्पर्य यह है कि विधान करने योग्य या निषेध करने योग्य ये सभी धर्म वस्तुके स्वभाव होकर सिद्ध किये जा चुके हैं । शद्वके द्वारा दोनों प्रकारके धर्मोका कण्ठेोक्तरूपसे निरूपण होता है । सभी प्रकार धर्म या स्वभावोंसे रहित निःस्वरूप वस्तुको आप सिद्ध नहीं कर सकते हैं । शद्वके द्वारा बुद्धि में जानने योग्य अर्थ में या सुगत प्रतिपादित अर्थ में भी अवधारण नहीं करना असिद्ध है । भावार्थ - शद्वके वाच्यार्थ में एवकार लगाकर अवधारण करना सिद्ध कर दिया है । निस्सार विवाद करनेसे अब पूरा पडो, कुछ प्रयोजन न निकलेगा ।
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केचिदाहुः —— नैकं वाक्यं स्वार्थस्य विधायकं सामर्थ्यादन्यनिवृत्तिं गमयति किं तर्हि ? प्रतिषेधवाक्यं तत्सामर्थ्यगतौ तु ततोऽन्यप्रतिषेधगतिरिति तेऽपि नावधारणं निराकर्तुमीशास्तदभावे विधायक वाक्यादन्यप्रतिषेधवाक्यगतेऽयोगात् ।
कोई मीमासक वादी कहते हैं कि एक ही वाक्य अपने अर्थकी विधिको करता हुआ अर्थापत्तिरूप सामर्थ्य से अन्यकी निवृत्तिको नहीं समझा देता है, तो क्या है ? सो सुनो ! प्रतिषेध करनेवाला दूसरा वाक्य अन्य निवृत्तिका बोधक है । उस विधायक वाक्यकी सामर्थ्य से दूसरा प्रतिषेध वाक्य उठाकर जान लिया जाता है । और उस प्रतिषेध वाक्यसे तो अन्यके निषेधकी ज्ञप्ति हो जाती है। इस प्रकार जो कोई कह रहे हैं। वे भी अवधारणको निराकरण करनेके लिये समर्थ नहीं हैं। क्योंकि उस अवधारणके विना विधायक वाक्यसे अन्य निषेधक वाक्यकी अर्थापत्ति होनेका अयोग है । भावार्थ — नियम करनेपर ही विधायक वाक्यसे अर्थापत्ति द्वारा प्रतिषेध वाक्यका उत्थान कर सकोगे । अन्यथा नहीं ।
यदि चैकं वाक्यमेकमेवार्थे ब्रूयादनेकार्थस्य तेन वचने भिद्येत तदिति मतं तदा पदमपि नानेकार्थमाचक्षीतानेकत्वप्रसंगात् । तथा च य एव लौकिकाः शद्धास्त एव वैदिका इति व्याहन्येत । पदमेकमनेकमर्थं प्रतिपादयति न पुनस्तत्क्रमात्मकं वाक्यमिति तमोविजृम्भितमात्रं, पदेभ्यो हि यावतां पदार्थानां प्रतिपत्तिस्तावन्तस्तदवबोधास्तद्धेतुकाच वाक्याइति चतुःसन्धानादिवाक्यसिद्धिर्न विरुध्यते ।
और यदि आपका यह मन्तव्य होवे कि एक वाक्य एक ही अर्थको कहेगा । यदि अनेक अर्थका ति वाक्य द्वारा कथन करना माना जायगा तो वह वाक्य उतने प्रकारका भिन्न भिन्न हो जायगा । यानी दो वाक्य विधि और निषेध दो अर्थोको कहते हैं । एक नहीं । इसपर आचार्य कहते हैं कि तब तो एक पद भी अनेक अर्थको न कह सकेगा । अनेक aat कहनेपर पदको अनेकपनका प्रसंग होगा और तिस प्रकार हो जानेपर जो ही लोक प्रसिद्ध शब्द है, वे ही वेदमें गाये गये हैं, उस कथनमें व्याघातदोष होगा । भावार्थ — एक स्थलपर मीमांसकोंने अर्थभेद होनेपर शब्दभेद मान लिया है।