Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वासोकवार्तिक
अधिक तत्त्व निर्णयके लिये मेरे मनमें नाना ऊहापोह उत्पन्न हो रहे हैं। तब गुरुजीने जाना कि अब इसको कुछ ग्रन्थ आया है । वास्तवमें तर्क करनेवाली और नवीन नवीन उन्मेष उठानेवाली बुद्धि ही प्रशंसनीय है।
___ तत एव सर्वः शद्धः स्वार्थस्य विधायकः प्राधान्यात् सामर्थ्यादन्यस्य निवर्तका सकृत्स्वार्थविधानस्यान्यनिवर्तनस्य चाऽयोगात् । न हि शदस्य द्वौ व्यापारी स्वार्थप्रतिपादनमन्यनिवर्तनं चेति, तदन्यनिवृत्तेरेवासम्भवात् तस्याः खलक्षणादभिन्नायाः स्वसमानखलक्षणेष्वनुगमनायोगादेकखलक्षणवत् । ततो भिन्नायास्तदन्यव्यावृत्तिरूपत्वाघटनात् खलक्षणान्तरवत् खान्यव्यावृत्तेरपि च तस्या व्यावृत्तौ सजातीयेतरवलक्षणयोरैक्यप्रसं. गादवस्तुरूपायाः स्व(तत्त्वा)त्वान्यत्वाभ्यामेवावाच्यायां (नी)निरूपत्वात् इदमस्मायावृत्तमिति प्रत्ययोपजननासमर्थत्वान्न शद्धार्थत्वं नापि तद्विशिष्टार्थस्य तस्याविशेषणत्वायोगात्तद्विशेषणत्वे वा विशेष्यस्य नीरूपत्वमसंगादन्यथा नीलोपहितस्योत्पलादेलित्वविरोधात् तदन्यव्यावृत्तवस्तुदर्शनभाविना तु प्रतिषेधविकल्पेन प्रदर्शितायास्तस्याः प्रतीतेविधिविकल्पोपदर्शितशद्धार्थविधिसामर्थ्याद्गतिरभिधीयत इति केषाञ्चिदभिनिवेशः, सोपि पापीयान् । स्वार्थविधिसामर्थ्यादन्यव्यावृत्तिगतिवत् कचिदन्यव्यावृत्तिसामर्थ्यादपि स्वार्थविधिगतिप्रसिद्धः शानित्यत्वसाधने सत्त्वादेर्व्यतिरेकगतिसामर्थ्यादन्वयगतेरभ्युपगमात् तदभिधानेऽन्यथा पुनरुक्तत्वाघटनात् शदेन वियिमानस्य निषिध्यमानस्य च धर्मस्य वस्तुस्वभावतया साधितत्वात् । सर्वथा धर्मनैरात्म्यस्य साधयितुमशक्तेश्व, बौद्धेऽपि सदस्यार्थे अवधारणस्यासिदेरलं विवादेन ।
___ परवादी कह रहे हैं कि तिस ही कारण सम्पूर्ण शब्द प्रधानतासे अपने वाच्यार्थके विधायक हैं । हाँ ! गौणरूपसे अर्थापत्तिकी सामर्थ्यसे अन्यकी निवृत्ति भी कर देते हैं। एक ही वारमें स्वार्थका विधान और अन्यकी निवृत्ति इन दो कार्योंके होनेका योग नहीं है । एक शद्बके स्वार्थ का प्रतिपादन और अन्यका निषेध करना इस प्रकार दो व्यापार तो नहीं हो सकते हैं। वस्तुतः विचारा जाय तो उस स्वार्थके अतिरिक्त अन्यकी निवृत्ति होना ही असम्भव है। क्योंकि वह अन्य निवृत्ति यदि स्वलक्षणसे अभिन्न मानी जायगी तब तो जैसे एक व्यक्तिरूप स्वलक्षणका अपने सदृश स्वलक्षणोंमें अनुगम नहीं होता है, तैसे ही अन्य निवृत्तिका सदृश स्वलक्षणोंमें अन्वय नहीं चल सकेगा । जाति और द्रव्य तो अन्वित होकर रह सकते हैं । किन्तु विशेष व्यक्ति अन्य व्यक्तियोंमें मालाके एक दाने समान अनुगम नहीं करती है । गौ शब्दको सुनकर गौसे अन्य महिष आदिककी निवृत्ति यदि सम्पूर्ण गौओंमें गमन न करेगी तो भला वह गौ शद्बका वाच्य कैसे हो सकती है ? उस स्वलक्षसे उसकी अन्यनिवृत्तिको यदि भिन्न माना जायगा तो वह अन्य व्यावृत्तिस्वरूप घटित नहीं होगी । जैसे एक गौरूप स्वलक्षणसे महिषरूपी दूसरा स्वलक्षण अन्य व्यावृत्तरूप नहीं है।