Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
है। उभयको कहनेवाला शब्द यदि अनुभयको निषेध नहीं करता है तो ऐसे शब्दके कहनेसे लाभ ही क्या निकला ? उभयके समान अनुभय भी उसका अर्थ हो गया। यानी शब्द विधि या निषेध दोनोंको नहीं कह रहा है । ऐसी दशामें बाबदूक और गूंगे ( मूक ) में कोई अन्तर नहीं है।
तदनुभयस्य व्याघातादेवासम्भवाद्व्यवच्छेदकरणमनर्थकमिति चेत् न, असम्भविनोऽपि केनचिदाशंकितस्य व्यवच्छेद्यतोपपत्तेः स्वयमनिष्टतत्ववत् । यदेव मूढमतेराशंकास्थानं तस्यैव निवर्त्यत्वात् कचित् किञ्चिदनाशंकमानस्य प्रतिपाद्यत्वासम्भवात् तं प्रयु
जानस्य यत् किञ्चनभाषितत्वादुपेक्षाहत्वात् । ___उस उभयसे अतिरिक्त अनुभय अर्थका प्राप्त होना तो व्याघात हो जानेसे ही असम्भव है । अर्थात् शब्द अनुभयको कहता होता तो उभयको नहीं कह सकता था। जब उभयको कह रहा है लो अनुभयको नहीं कह सकता है । उभयसे सर्वथा ही भिन्न अनुभय है । इस कारण अनुभयका व्यवच्छेद करना व्यर्थ है । अब आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि असम्भववाला भी अर्थ यदि किसीके द्वारा आशंका प्राप्त हो जाय तो उसका व्यवच्छेद किया जानापन युक्तिसिद्ध है। जैसे कि स्वयंको अनिष्टतत्त्व व्यवच्छेद्य हो जाता है । किसी समय घरमें मनुष्यकी हड्डीका होना नहीं सम्भव है, फिर भी हड्डीभिन्नमें संशयवश हड्डीको जानकर किसी पदार्थसे स्पर्श हो जाय तो स्नानरूप प्रायश्चित्त करना ही न्यायप्राप्त है। तभी चित्तकी शुद्धि हो सकती है । बच्चेको समझानेके लिये अश्वके सींगोंका निषेध करना पडता है । प्रायः सभी दार्शनिकोंको अपने अभीष्ट तत्त्वोंसे अतिरिक्त अन्य तत्त्वोंकी सम्भावना नहीं है। फिर भी कहीं अनिष्ट तत्त्वकी आपत्ति (बला) न आ कूदे । इसलिये अनिष्टका निषेध करना ही पड़ता है। जो ही भोली बुद्धिवाले श्रोताकी शंका करनेका स्थान है, वही निवृत्ति करने योग्य है। कहीं भी कुछ भी शंकाको नहीं करनेवाला भोंदू प्रतिपादन करने योग्य शिष्य नहीं बन सकता है। जो ढूंठके समान बैठा हुआ शंका, चर्चा नहीं करता है, उसके प्रति प्रयोग करनेवाले वक्ताको जो कुछ भी मनमानी कहनेवाला समझना चाहिये । कारण कि ऐसे भोंदू शिष्य समझाने योग्य नहीं हैं, किन्तु उपेक्षा करने योग्य हैं। एक उपयोगी दृष्टान्त है । किसी उद्भट नैयायिक विद्वान्ने अपने प्रिय पुत्रको न्यायदीपिका पढाई। पढ चुकनेपर गुरुने शिष्यको पूंछा कि तुमको इसमें कुछ पूंछना है ? कोई शंका उत्पन्न हुयी है क्या ? इसके . उत्तरमें भोला लडका कहता है कि जब आप सरीखे प्रकाण्ड विद्वान् पढावें और मैं विनयसे पहूं । भला पिता अपने पुत्रसे कोई ग्रन्थकी बातको छिपा सकता है ? तिसपर तो आपने मुझे बडे परिश्रमसे पढाया है । ऐसी दशामें भला मुझे क्या शंका हो सकती है ? तब गुरुने विचारा कि इस लडकेको कुछ भी ग्रन्थ नहीं आया। अतः पुनः दुवारा न्यायदीपिका पढाई । पूरी होनेपर गुरुजीने पुनः पूंछा कि अब तुमको कुछ शंका या चर्चा करना है ? फिर गुरुजीने तीसरी बार न्यायदीपिकाको पढाया । तब तो विद्यार्थी कहने लगा कि अब तो मुझे पचासों बातोंका निर्णय करना है।