Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्याचन्तामाणः
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और अन्यत्र लौकिक और वैदिक अग्नि आदिक शद्वोंको एक ही कह दिया है। यह व्याघात हुआ । एक पद तो अनेक अर्थोको प्रतिपादन कर देवे और फिर उन पदोंका क्रमस्वरूप वाक्य अनेक अर्थोको नहीं कहे ऐसा संकुचित नियम करना केवल गाढ अज्ञान अन्धकारकी चेष्टा करना है । " पदानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यं " यह वाक्यका लक्षण है । पदोंसे जितने पदार्थोकी नियमसे प्रतिपत्ति होगी, उतने उनके ज्ञान और उन पदज्ञानोंको हेतु मानकर उत्पन्न होनेवाले वाक्यार्थ ज्ञान उतने माने जावेंगे । इस प्रकार एक पदके या श्लोकके चार सात आदि अर्थोको करनेवाले चतुःसन्धान सप्तसन्धान आदि वाक्योंकी भी सिद्धि होनेका कोई विरोध नहीं हैं। " श्रेयान् श्रीवासुपूज्यो वृषभजिनपतिः श्रीद्रुमाङ्कोऽथ धर्मो, हयंकः पुष्पदन्तो मुनिसुव्रतजिनोनंतवाक् श्रीसुपार्श्वः । शान्तिः पद्मप्रभोरो विमलविभुरसौ वर्द्धमानोप्यजांको, मल्लिर्नेमिनमिर्मा सुमतिरवतुसजिगन्नाथधीरम् ॥ १॥ इस कविवर जगन्नाथकृत श्लोकके चौवीस अर्थ हैं । अतः एक पद या एक वाक्यके अनेक अनेक अर्थ हो सकते हैं । कोई बाधा नहीं है। ____ केवलं पदमनर्थकमेव ज्ञेयादिपदवद्यवच्छेद्याभावात् वाक्यस्थस्यैव तस्य व्यवच्छेद्यसद्भावादिति येप्याहुस्तेऽपि शद्वन्यायबहिष्कृता एव, वाक्यस्थानामिव केवलानामपि पदा
नामर्थवत्त्वप्रतीतेः। समुदायार्थेन तेषामनर्थवत्त्वे वाक्यगतानामपि तदस्तु विशेषाभावात् । पदान्तरापेक्षत्वात्तेषां विशेषस्तन्निरपेक्षेभ्यः केवलेभ्य इति चेत्, न । तस्य सतोऽपि तथा प्रविभागकरणासामोत् । न हि स्वयमसमर्थनां वाक्यार्थप्रतिपादने सर्वथा पदान्तरापेक्षायामपि सामर्थ्य मुपपन्नमतिप्रसंगात्, तदा तत्समर्थत्वेन तेषामुत्पत्तेः। केवलावस्थातो विशेष इति चेत्तर्हि वाक्यमेव वाक्यार्थप्रकाशने समर्थ तथा परिणतानां पदानां पदव्यपदेशाभावाद । ____ जो कोई भी ऐसा कह रहे हैं कि अकेले पदका प्रयोग करना तो व्यर्थ ही है । ज्ञेय, प्रमेय, आदि पदोंके समान अन्य पदोंकी आकांक्षा विना वोले गये घट, पट आदि पद भी व्यर्थ ही है । भावार्थ-ज्ञेय पदका जैसे कोई व्यावर्त्य नहीं है। क्योंकि वस्तुभूत पदार्थ कोई ज्ञेयसे बाहर नहीं है। वैसे ही अकेले घट पदका कोई व्यवच्छेद करने योग्य नहीं है। हां ! वाक्यमें स्थित होरहे ही उस पदका व्यवच्छेद्य विद्यमान है। तभी वह सार्थक हो सकता है । इस प्रकार कहनेवाले वे भी शब्दके नीतिमार्गसे बहिष्कारको ही प्राप्त होरहे हैं। क्योंकि वाक्यमें स्थित हो रहे पदोंके समान अकेले केवल पदोंको भी अर्थसहितपना प्रतीत हो रहा है। यदि समुदायरूप अर्थकी अपेक्षासे उन केवल पदोंको निरर्थक कहोगे तो वाक्यमें प्राप्त हुए भी पदोंको वह निरर्थकपना हो जाओ। क्योंकि अकेले पदोंसे वाक्यस्थित पदोंमें कोई अन्तर नहीं है। वहां भी वे अपना न्यारा न्यारा अर्थ कह रहे हैं। यदि आप यों कहें कि वाक्यमें पडे हुए वे पद तो अन्य पदोंकी अपेक्षा रखते हैं । जैसे कि "घटमानय" यहां घट पद लाओ की अपेक्षा रखता है और लाओ पद घटकी अपेक्षा रखता है। किन्तु केवल अकेले पद तो अन्य पदोंकी अपेक्षा नहीं रखते । अतः वाक्यगत पदोंका केवल पदोंसे अन्तर है। अब आचार्य
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