Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
अवधारण नहीं करना चाहिये । इस प्रकार कोई एक वादी कह रहे हैं । आचार्य कहते हैं कि वे भी अनादि कालसे चली आयी हुयी शब्दकी परिपाटीको नहीं समझते हैं । तिन शद्वोंमें जो शब्द नहीं नियमित किये गये अपने सामान्य अर्थके प्रतिपादन करनेमें संकेत ग्रहण किये हुए हो चुके हैं, वे शब्द तो उस अर्थके नियम करनेकी विवक्षा होनेपर अवश्य एवकारको चाहते हैं । जल शब्दका अर्थ सामान्यरूपसे जल है । और हमें जल ही ऐसा अर्थ अभीष्ट हो रहा है, तो 'जलं एव' जल ही है, यह एवकार लगाना चाहिये । तथा जब कभी जल और अन्नके समुच्चय या समाहार अथवा अन्वाचयकी विवक्षा हो रही है । तब चकार शद्ब लगाना चाहिये जलं अन्नं, च, तथा विकल्प अर्थकी विवक्षा होनेपर वा शद्ब जोडना चाहिये, इत्यादि । यदि यहां कोई यों कहे कि अवधारण, समुच्चय, विकल्प आदि अर्थोको कह रहे एवकार चकार हिकार वाकार आदिकोंको भी अन्यनिवृत्ति समुच्चय आदि करनेमें दूसरे एवकार चकार आदिकोंकी अपेक्षा होना सम्भवेगी, ग्रन्थकार कहते हैं कि सो नहीं कहना । जिससे कि अनवस्थादोष हो जाय । वे एवकार आदिक निपात तो अन्य अर्थके द्योतक हैं और स्वयं अपने अर्थके भी द्योतक हैं। प्रदीप सूर्य, चंद्र, आदिके समान उनको दूसरे अर्थद्योतक शद्बोंकी अपेक्षा नहीं है । भावार्थ-एवकार घट आदिककी अन्यसे निवृत्ति करा देता है । और अपनी भी अन्योंसे निवृत्ति कर लेता है । इसी प्रकार च शब्द भी घट, पटको परस्परमें जोड देता है और स्वयं भी समुचित हो जाता है।
नन्वेवमेवेत्यादि शदप्रयोगे द्योतकस्याप्येवं शदस्यान्यनिवृत्तौ द्योतकान्तरस्यैवकारादेरपेक्षणीयस्य भावात्सर्वो द्योतको द्योत्येर्थे द्योतकान्तरापेक्षः स्यात् तथा चानवस्थानान्न कचिदवधारणाद्यर्थप्रतिपत्तिरिति चेत् न, एवशद्धादेः स्वार्थे वाचकत्वादन्यनिवृत्तौ द्योतकान्तरापेक्षोपपत्तेः। न हि द्योतका एव निपाताः कचिद्वाचकानामपि तेषामिष्टत्वात । द्योतकाच भवन्ति निपाता इत्यत्र च शदाद्वाचकाश्चेति व्याख्यानात् । न चैवं सर्वे शद्धाः निपातवस्वार्थस्य द्योतकत्वेनाम्नाता येन तनियमे द्योतकं नापेक्षेरन् । ततो वाचकशद्धप्रयोगे तदनिष्टार्थनिवृत्त्यर्थः श्रेयानेवकारपयोगः! ___यहां शंका है कि इस प्रकारका नियम करनेपर यानी द्योतक शद्बको दूसरे द्योतक शद्वकी अपेक्षा नहीं है। इसमें तो व्यभिचारदोष देखा जाता है । " एवमेव " इस प्रकार ही है। " एवञ्च " और ऐसा होनेपर तथा " न चैवम् एवमपि " चैव, च हि इत्यादि शद्धोंके प्रयोगमें घोतक हो रहा एवं शर भी अन्य निवृत्ति करनेके लिए दूसरे द्योतक एवकार आदिककी अपेक्षा रखता हुआ विद्यमान है । अतः सभी द्योतक शब्द अपने अपने द्योतन करने अर्थमें दूसरे द्योतकोंकी अपेक्षा करनेवाले होंगे और तैसा होनेपर तो अनवस्था हो जायगी । इस कारण कहीं भी नियम करना आदि अर्थोकी प्रतीति नहीं हो सकती है । यों कहनेपर आचार्य कहते हैं कि यह शंका तो नहीं करना ।क्योंकि एव, च आदिक शब्द जब अपने अर्थमें वाचक होकर प्रवृत्त रहे हैं तो अन्य.
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