Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सलार्थचिन्तामणिः
सुखसंवेदने प्राच्यदुःखसंवेदनाभावान्नाविच्छिन्नमेकं संवेदनं यदनाद्यनन्तकालवर्तितया क्रमवत् स्यादिति चेन्न, सुखदुःखाद्याकाराणामनाद्यविद्योपदर्शितानामेव विच्छेदात् । एतेन नानानीलपीतादिप्रतिभासानां देशविच्छेदाधुगपत्सकलव्यापिनोनुभवस्याविच्छेदाभावः प्रत्युक्तः, तत्त्वतस्तद्विद्विच्छेदाभावात् । ततो न क्षणिकमद्वयं संवेदनं नाम तस्य व्यापि नित्यस्यैव प्रतीतिसिद्धत्वात् ।
___ यदि यहां कोई यों कहे कि सुखका भले प्रकार ज्ञान करनेपर पहिलेके दुःखका प्रतिभास नहीं होता है । अतः अन्तरालसहित चला आया हुआ एक संवेदन नहीं सिद्ध हुआ जो कि अनादिकालसे अनन्तकालतक वर्तनेवाला होकरके क्रमवान् ( क्रमसहित ) हो जाता । आचार्य समझाते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि सुख, दुःख, पश्चात्ताप, आत्मगौरव आदि विकल्पनाएं जो कि अनादिकालकी अविद्याके द्वारा दिखायी जारहीं हैं उन्हींका विच्छेद हो रहा है। भावार्थसुखमें दुःखका तथा कषाय करते समय मन्दकषाय भावोंका भले ही अन्वय न होय, किन्तु प्रतिभासपनेकी सन्तति अविच्छिन्न होकर चलती रहती है । इस कथनसे अनेक नील, पीत, आदि स्वसंवेदनोंका देशसे व्यवधान होनेके कारण एक समयमें ही सम्पूर्ण सम्वेदनोंमें व्यापक रहनेवाले अनुभवका अविच्छिन्नपना नहीं है यह भी खण्डित कर दिया गया है । क्योंकि परमार्थरूपसे उस प्रकाशरूप संवित्तिका विच्छेद नहीं हो पाया है । अर्थात् एक द्रव्यके क्रमसे होनेवाले परिणामोंमें और एक साथ होनेवाले परिणामोंमें ध्रौव्यरूप अन्वय बने रहनेके कारण कालान्तरस्थायी पदार्थमें ही क्रम, युगपत्पना, अर्थक्रिया, और सत्त्व, बन सकते हैं । कूटस्थ या क्षणिकमें उसीका क्रमसे होकरके हो जानापन और युगपत् नवीन नवीन अनेक परिणामोंकी धाराका वहना ये दोनों नहीं बनते हैं । तिस कारण सिद्ध हुआ कि एक क्षणमें ही नष्ट हो जानेवाला शुद्ध अद्वैत संवेदन कोई नाम मात्रको भी वस्तु नहीं है । किन्तु अनेक आकारोंमें व्यापनेवाले तथा अनेक समयों तक ठहरने वाले स्वरूप नित्य उस संवेदन की ही प्रतीतियोंसे सिद्धि हो रही है।
तदेवास्तु ब्रह्मतत्त्वमित्यपरस्तं प्रत्याहा--
सर्वथा क्षणिक और अणुरूप विज्ञानके अद्वैतको माननेवाले बौद्धों प्रति स्याद्वाद्वियोंके द्वारा नित्य और व्यापक संवेदनकी सिद्धि करा देनेपर दूसरे ब्रह्माद्वैतवादी अपना प्रयोजन सिद्ध हो गया समझते हुए बोल उठे कि वह नित्य, व्यापक, चैतन्य ही परब्रह्म तत्त्व हो जाओ ! इस प्रकार सुयोग्य अवसर पाकर एकान्तकी पुष्टि करनेवाले उन ब्रह्माद्वैतवादियोंके प्रति आचार्य महाराज प्रकर्ष पूर्वक स्पष्ट उत्तर कहते हैं
यच्चितप्रकाशसामान्यं सर्वत्रानुगमात्मकम् । तत्प्रकाशविशेषाणामभावे केन वेद्यते ॥ १४ ॥ . .....