Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामाणिः
अपने और अर्थकी प्रमिति करनेमें प्रकृष्टपनेसे साधक नहीं हैं ( साध्य )। जड होनेसे ( हेतु ) । जैसे कि घट, पट, आदिक ज्ञेय विषय साधकतम नहीं हैं ( दृष्टान्त )। हां, जो भला ज्ञप्तिका साधकतम देखा गया है वह तो चेतनपदार्थ ही है । जैसे कि विशेषणका ज्ञान चेतन होनेसे ही विशेष्यकी ज्ञप्तिमें करण हो सका है । अर्थात् प्रथम सामान्यरूपसे दस मनुष्योंको जानलेनपर पुनः एकके हाथमें दण्डके दीख जानेपर उस मनुष्यके दण्डीपनका ज्ञान हो जाता है । यह दृष्टान्त वैशेषिकोंके प्रति उनके मतानुसार दे दिया है। वस्तुतः ज्ञप्तिके करणपनका यदि विचार किया जायगा तो विशेषणके ज्ञानसे विशेषणकी ही परिच्छित्ति होगी और विशेष्यके ज्ञानसे ही विशेष्यकी ज्ञप्ति हो सकेगी। यों धूमज्ञानसे वह्निज्ञानके सदृश सामान्य ज्ञापक कारणकी अपेक्षासे भले ही अन्यके ज्ञानको ज्ञापक कह दिया जाय । प्रकरणमें यह कहना है कि पुद्गल द्रव्यके बनाये गये द्रव्यनेत्र आदिक तो चेतन नहीं है । इस कारण परिच्छित्तिमें साधकतम करण नहीं हो सकते हैं। जिससे कि वे प्रमाणस्वरूप सिद्ध हो सकें। यानी द्रव्यनेत्र, कान आदि प्रमाणरूप नहीं हैं । रहे अभ्यन्तर द्रव्य इन्द्रिय इस नामको धारनेवाले थोडे आत्मप्रदेश, वे भी अखंडपिण्ड या ज्ञान तादात्म्यकी अपेक्षा नहीं रखते हुये पुद्गल सदृश ही हैं। हां, परिपूर्णप्रदेशी ज्ञानी आत्मा तो ज्ञप्तिका कर्ता है, करण नहीं ।
छिदौ परश्वादिना साधकतमेन व्यभिचार इति चेन्न, स्वार्थपरिच्छत्तौ साधकतमत्वाभावस्य साध्यत्वात् । न हि सर्वत्र साधकतमत्वं प्रमाणत्वेन व्याप्तं परश्वादेरपि प्रमाण त्वप्रसंगात् । भावनेत्रादि चेतनं प्रमाणमिति तु नानिष्टं तस्य कथञ्चित्साधकतमत्वोपपत्तेः, आत्मोपयोगस्य स्वार्थप्रमितौ साधकतमत्वात्तस्य भावेन्द्रियत्वोपगमात् । ___यदि कोई यों कटाक्ष करे कि " परशुना काष्ठं छिनत्ति” यहां छेदनक्रियामें साधकतम तो कुठार, फरसा, वसूला, आदि भी देखे जाते हैं । अतः जो जो छित्तिमें साधकतम हैं वे वे चेतनप्रमाण हैं, इस व्याप्तिका व्यभिचारदोष हुआ । सो यह तो न कहना। क्योंक पूर्वोक्त अनुमान द्वारा स्व और अर्थकी ज्ञप्तिमें साधकतमपनेका अभाव परशु आदिमें साध्य किया है । अर्थात् फरसा आदिक तो ज्ञप्तिक्रियाको करनेमें प्रकृष्ट उपकारक नहीं हैं, जब कि सभी क्रियाओंमें साधक तमपना प्रमाणपनके साथ व्याप्ति नहीं रखता है। अन्यथा तब तो फरसा, दण्ड आदिकको भी प्रमाणपनका प्रसंग हो जायगा । हां ! भावइन्द्रियस्वरूप नेत्र, कान आदि तो चेतन होनेके कारण प्रमाण हैं, यह तो अनिष्ट नहीं है, यानी इष्ट ही है । उनको किसी अपेक्षासे ज्ञप्तिक्रियाका करणपना सिद्ध हो रहा है । आत्माके उपयोगरूप ज्ञानको अपनी और अर्थकी प्रमिति करनेमें साधकतमपना है । जैनसिद्धान्तमें उस उपयोगको भावेन्द्रियपना स्वीकार किया गया है। "लब्ध्युपयोगौ भावोन्द्रयम्"। इस ही प्रकार अग्निकी ज्ञप्ति और वाच्यअर्थकी ज्ञप्तिमें भी अग्निज्ञान और वाच्यज्ञान करण हैं, धूम और शब्द तो कथमपि करण नहीं हैं। अन्यथा सोते हुए बालकको या संकेतको नहीं ग्रहण करनेवाले