Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थाचन्तामाणः
भ्रान्तिसे अर्थक्रियाका निमित्त सदृश स्वलक्षणको मान रहा है। वास्तविकरूपसे उस स्वलक्षणके अर्थक्रियाका असम्भव है अथवा वास्तविक धर्मोमें असद्रूप स्वलक्षणका आरोप करना असम्भव है । यदि सम्भव माना जावेगा तो प्रत्यक्षमें ही स्वलक्षणके प्रतिभासनेका प्रसंग होगा ऐसा होनेपर धर्म
और स्वलक्षणके अनेक आकारवाले ज्ञानोंका एक बार भी दूरीकरण नहीं किया जा सकता है । विनिगमनाविरह होनेसे दोनों सिद्ध हो जावेंगे । भावार्थ-जैसे बौद्धोंने प्रायः बीस पंक्तिके पहिले पूर्वपक्ष करते समय अस्तित्वादि धर्मोका खण्डन कर दिया था, तिस ही प्रकार उनके स्वलक्षणका भी निराकरण किया जा सकता है । न्याय्य आपादन करनेमें लज्जाकी कोई बात नहीं है । दूसरेके ऊपर कटाक्ष करनेवालेको अपने ऊपर आये हुये आक्षेपोंका भी सहन करना पड़ेगा।
___ स्वलक्षणस्य वस्तुतोऽसत्त्वे कस्यायत्ताः सत्वादयो धर्मा इति चेत् तेषां परमार्थतोऽ सत्वे कस्य स्खलक्षणमाश्रय इति समः पर्यनुयोगः । खरूपस्यैवेति चेत् तर्हि धोः स्वरूपायत्ता एव सन्तु स्वलक्षणमनिर्देश्यं स्वस्य परस्य वाश्रयत्वेनान्यथा वा निर्देष्टुमशक्यत्वादिति चेत् तत एव धर्मास्तथा भवन्तु विरोधाभावात् । स्याद्वादिनां शुद्धद्रव्यस्येवार्थपर्यायाणामनिर्देश्यत्वोपगमात् । यथा च व्यञ्जनपर्यायाणां सदृशपरिणामलक्षणानां निर्देश्यत्वं तैरिष्टं तथा द्रव्यस्याप्यशुद्धस्येति नैकान्ततः किञ्चिदनिर्देश्यं निर्देश्यं वा ।
बौद्ध कहते हैं कि यदि स्वलक्षणको वास्तविकरूपसे असत्पना माना जायगा तो किसके अधीन होकर वे सत्त्व आदिक धर्म ठहर सकेंगे ? ऐसा कहनेपर तो हम जैन भी कहेंगे कि यदि उन अस्तित्वादि धर्मोको परमार्थरूपसे असत् माना जायगा तो तुम्हारा स्वलक्षण किसका आश्रय होगा ? जैसे कि अग्निके बिना उष्णता नहीं ठहरती तैसे ही उष्णता आदिके बिना अग्नि भी किसका आधार होगी ! इस प्रकार दोनों ओरसे प्रश्न उठानारूप कटाक्ष समान हैं। इसपर बौद्ध यदि यों कहें कि अस्तित्व, आदिके विना भी अपने स्वरूप ही का स्वलक्षण हो जायगा। तब तो हम जैन भी कह देंगे कि स्वलक्षणरूप आधारके विना भी अस्तित्व आदिक धर्म अपने स्वरूपके अधीन होकर ही ठहर जावें । यदि बौद्ध यों कहें कि स्वलक्षण तत्त्व तो अवाच्य है, निर्विकल्पक है। अपने या दूसरोंके आश्रयपनेसे अथवा अन्य प्रकारोंसे शद्वद्वारा उसका कथनोपकथन नहीं किया जा सकता है । ऐसा कहनेपर तो हम भी कहेंगे कि तिस ही कारण धर्म भी शब्द द्वारा नहीं कहे जा सकते हैं। अतः तिस प्रकार स्वरूपके ही अधीन होते हुए वे अवक्तव्य हो जाओ ! कोई विरोध नहीं आता है । स्याद्वादियोंके यहां शुद्धद्रव्यके समान सूक्ष्म अर्थपर्यायोंको भी शब्द द्वारा अवक्तव्य माना गया है और जिस प्रकार कि सदृश परिणाम है स्वरूप जिनका ऐसी व्यञ्जन पर्यायोंका शब्दके द्वारा कथन किया जानापन उन्होंने स्वीकृत किया है । तिस ही प्रकार परद्रव्यके साथ बन्धको प्राप्त हो रहे अशुद्ध द्रव्यका भी शब्द द्वारा वचन होना माना है। भावार्थ-" वृत्तिर्वाचामपरसदृशी" वचनोंकी प्रवृत्ति दूसरोंके सदृश होती है। न्यायदर्शनके शब्द खण्ड ग्रन्थोंमें इसपर भारी विवेचन
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