Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
एक धर्म पकड लिया जाय । वह अपने प्रतिषेध्य दूसरे वास्तविक छह धोके साथ अविनाभाव रखनेवाला सिद्ध कर दिया गया समझ लेना चाहिये ।
क्रमार्पितोभयादीनां विरुद्धत्वेन सम्भवान्न तदविनाभावित्वं शक्यसाधनं धर्मिणः साधनस्य वाऽसिद्धरिति चेन्न, स्वरूपादिचतुष्टयेन कस्यचिदस्तित्वस्य पररूपादिचतुष्टयेन च नास्तित्वस्य सिद्धौ क्रमतस्तद्वयादस्तित्वनास्तित्वद्वयस्य सहावक्तव्यस्य सहार्पितवपररूपादिचतुष्टयाभ्यां स्वरूपचतुष्टयाचास्त्यवक्तव्यत्वस्य ताभ्यां पररूपादिचतुष्टयाच्च नास्त्यवक्तव्यत्वस्य क्रमाक्रमाप्तिाभ्यां ताभ्यामुभयावक्तव्यत्वस्य च प्रसिद्धेविरोधाभावाच्च धर्मिणः साधनस्य च प्रसिद्धः।
अब फिर शंका है कि क्रमसे अर्पित किये गये उभय, या अवक्तव्य, आदि धर्मोकी विरुद्धपनेसे सम्भावना हो रही है। अर्थात् जहां उभय है, वहां अवक्तव्य नहीं है । इसी प्रकार सर्वत्र विरोध है । अतः उनका अविनाभावीपना सिद्ध नहीं किया जा सकता है । तब तो एक वस्तुमें अवक्तव्यत्व आदि किये गये धर्मीकी और विशेषणपन हेतुकी सिद्धि नहीं हुयी । पक्षमें हेतु न रहा। भला विरुद्ध अनेक विशेषण एकमें कैसे रह सकते हैं ? आचार्य कहते हैं कि यह शंका तो न करना। क्योंकि स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके चतुष्टय करके किसीके अस्तित्व और पररूप आदि चतुष्टय करके नास्तित्व धर्मकी सिद्धि हस कर चुके हैं । ऐसा होनेपर क्रमसे उनके उभयसे तीसरे अस्तित्व नास्तित्व उभयका और स्वरूप, पररूप, आदि चतुष्टयोंसे एक साथ कहनेकी अपेक्षा चौथे सहावक्तव्य धर्मका कोई विरोध नहीं है । इसी प्रकार स्वपर चतुष्टयसे एक साथ कहा नहीं जा सकता है। किन्तु स्वरूप चतुष्टयसे अस्ति है ही, अतः पांचवें अस्त्यवक्तव्य भंगका विरोध नहीं है । एवं उन सहार्पित स्वपररूप चतुष्टयके साथ पररूप आदि चतुष्टयसे नास्तिपनकी विवक्षा करनेपर छठवें नास्त्यवक्तव्यपनका इस वस्तुमें कोई विरोध नहीं है । तथा क्रमसे विवक्षित किये गये दोनों चतुष्टय और अक्रमसे अर्पित उन दोनों चतुष्टयों करके सातवें उभयावक्तव्यपन धर्मकी प्रसिद्धि हो रही है। अतः सातों धर्मोका परस्परमें कोई विरोध नहीं है । वे प्रसन्नता पूर्वक रह जाते हैं । हमारे पक्ष और हेतुकी प्रमाणसे सिद्धि हो गयी है।
न हि स्वरूपेस्ति वस्तु न पररूपेऽस्तीति विरुध्यते, स्वपररूपादानापोहनव्यवस्थापाद्यत्वाद्वस्तुत्वस्य, स्वरूपोपादानवत् पररूपोपादाने सर्वथा स्वपरविभागाभावप्रसंगांत् । स चायुक्तः, पुरुषाद्वैतादेरपि पररूपादपोढस्य तथाभावोपपत्तेरन्यथा द्वैतरूपतयापि तद्भावसिद्धेरेकानेकात्मवस्तुनो निषेद्धमशक्तेः। पररूपापोहनवत्स्वरूपापोहने तु निरुपाख्यत्वप्रसंगात् । तच्चानुपपन्नम् । ग्राह्यग्राहकभावादिशून्यस्यापि सम्बिन्मात्रत्वस्य स्वरूपोपादानादेव तथा व्यवस्थापनादन्यथा प्रतिषेधात् ।