Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थ लोकवार्तिके
नहीं हो जाते हैं, किन्तु भिन्न ही रहते हैं । अतः उक्त प्रकार बौद्धोंके वचन कैसे विश्वास करने योग्य हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं । किसी पदार्थके कहीं नास्तिपनकी सामर्थ्य से दूसरे स्थानपर अस्तित्व भी सिद्धि हो जाती है । तिस कारण उसको भी उससे भिन्न स्वरूपपनके अभावका प्रसंग हो जायगा । जीवित देवदत्तके घर में न रहने की सामर्थ्य से बाहिर रहना अर्थापत्ति से जान लिया जाता है, फिर भी घर में न रहना और बाहिर रहना ये दो धर्म माने गये हैं । दूसरी बात यह है कि भाव और अभावके सर्वथा एकपने को कह रहा वह यह बौद्ध किसी भी प्रकार से किसी भी पदार्थ में न तो प्रवृत्ति ही कर सकेगा और न जिस किसी भी पदार्थसे निवृत्ति भी कर सकेगा । क्योंकि उसकी निवृत्तिका विषय भाव पदार्थ अभावको छोडकर कुछ नहीं है और अभावका भावको छोड़कर सम्भव नहीं है । निवृत्तिके विषय और प्रवृत्तिके विषयका भेद माने विना इष्टमें प्रवृत्ति और अनिष्टमें निवृत्तिकी व्यवस्था नहीं बन सकती । दोनोंके एक माननेसे भारी गुटाला मचता है । इस कारण किसी पदार्थ में अस्तित्व, नास्तित्वका परमार्थरूपसे भिन्न स्वरूपपना मान लेना चाहिये । तिस प्रकार " अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकचर्मिणि " अस्तित्व धर्म ( पक्ष ) अपने प्रतिषेध करने योग्य नास्तित्व धर्मके साथ अविनाभावी ( साध्य ) और धर्मस्वरूप ( हेतु ) होकर जिस हेतु ( दृष्टान्त ) में या अपने अभीष्ट तत्त्व ( दृष्टान्त ) में सिद्ध हो रहा है वही हमारे अनुमानका दृष्टान्त बन जायगा । इस प्रकार दृष्टान्तके अभावकी आशंका न करना । बौद्ध, चार्वाक, या अद्वैतवादी प्रति प्रयोग करनेके लिये उदाहरण बन गया ।
1
प्रतिषेध्यं पुनर्यथास्तित्वस्य नास्तित्वं तथा प्रधानभावतः क्रमार्पितोभयात्मकत्वादिधर्मपञ्चकमपि तस्य तद्वत् प्रधानभावार्पितादस्तित्वादन्यत्वोपपत्तेः । एतेन नास्तित्वं क्रमार्पितं द्वैतं सहार्पितं चावक्तव्योत्तरशेषभंगत्रयं वस्तुतोऽन्येन धर्मषन प्रतिषेध्येनाविनाभावि साधितं प्रतिपत्तव्यम् ।
फिर अस्तित्वका निषेध करने योग्य जैसे नॉस्तित्व है, तिस ही प्रकार प्रधानपन करके क्रमसे विवक्षित किये गये उभयस्वरूप यानी अस्तिनास्ति, अवक्तव्य, अस्त्यवक्तव्य, आदि पांचों धर्म भी अस्तित्व प्रतिषेध्य हैं। क्योंकि उस नास्तित्वके समान उन पांचोंको भी प्रधान भावसे विवक्षित किये गये अस्तिपनसे कथञ्चित् भिन्नपना सिद्ध है । प्रतिषेध्यका अर्थ सर्वथा अभाव करने योग्य ऐसा नहीं है । किन्तु प्रकृत धर्मसे विपरीत होकर कथञ्चित् प्रतियोगी होते हुए वहां एक वस्तु सहयोगिता रूप साथमें रहना है । तभी तो सातों धर्म हाथमें पांच अंगुलियोंके समान परस्पर में एक दूसरे के प्रतिषेध्य बन जाते हैं । गाडीमें जुते हुए दो बैलोंमेंसे एक दूसरेका प्रतियोगी है । मल प्रतिमल्लों में प्रतियोगी भाव है । इस कथनसे नास्तित्व ९ या क्रमसे विवक्षित किया गया उभय २ अथवा एक साथ विवक्षित किया गया अवक्तव्य ३ तथा अस्त्यवक्तव्य १ नास्त्यक्तव्य २ अस्तिनास्त्यवक्तव्य ३ ये तीन भंग इस प्रकार १+३+३ = ७ सात धर्मोमेंसे कोई भी
1
४१८