Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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कथमेकं द्रव्यमनन्तपर्यायमविरुद्धमुक्तमिति चेत्, जीवादीनामनन्तद्रव्याणामनिराकरणादिति ब्रूमः, । सन्मात्रं हि शुद्धं द्रव्यं तेषामनन्तभेदानां व्यापकमेकं तदभावे कथमा. स्मानं लभते ।
यहां कोई अद्वैतवादी कटाक्ष करता है कि यदि एक द्रव्यके जड, चेतन, आदि अनन्त विवर्त होना विरुद्ध है तो आप जैनोंसे कहा गया एक द्रव्य अनन्तपर्यायवाला अविरुद्ध कैसे होगा ? ऐसा कहनेपर तो हम जैन गौरवके साथ कहते हैं कि जीव आदि अनन्तद्रव्योंका जैन सिद्धान्तमें निराकरण नहीं है । यानी एक द्रव्यकी अनन्त पर्यायें हो सकती हैं । अनन्तद्रव्य अपनी अपनी पर्यायोंको लिये हुए स्वतन्त्र ठहर सकते हैं । किन्तु एक द्रव्यके विवर्त अनन्तद्रव्य नहीं हो सकते हैं । स्याद्वाद सिद्धान्तमें धर्म, अधर्म, और आकाश, एक एक द्रव्य हैं । कालद्रव्य असंख्याते हैं । जीवद्रव्य अनन्तानन्त हैं और पुद्गलद्रव्य उनसे भी अनन्त गुणे हैं । किन्तु अद्वैतवादी तो अनन्तविवर्तीको वास्तविक स्वीकार नहीं करते हैं । अतः स्वपर-विधिनिषेधसे उनके अद्वैतकी व्यवस्था नहीं होती है । भला विचारो तो सही कि यदि अनन्तद्रव्योंको न माना जायगा तो उनके मतानुसार भी उन अनन्तभेदोंका व्यापक शुद्ध सत्तामात्र एक द्रव्य कैसे आत्मलाभ कर सकता है ? । अर्थात् अद्वैतवादियोंने विधिस्वरूप सन्मात्रको ब्रह्मतत्त्व माना है । अवान्तर सत्तावाले अनेक द्रव्योंको माने विना शुद्ध धात्वर्थ सत्तारूप भाव भला किनका व्यापक होकर स्वरूप लाभ कर सकेगा ? सोचिये।
कथमिदानीं तदेव स्वद्रव्येऽस्ति परद्रव्ये नास्तीति सिध्येत् । न हि तस्य स्वद्रव्यमस्ति पर्यायत्वप्रसंगायतस्तत्रास्तित्वम् । नापि द्रव्यान्तरं यतः नास्तित्वमिति चेन्न कथञ्चित् न हि सन्मानं स्वद्रव्येऽस्ति परद्रव्ये नास्तीति निगद्यते । किं तर्हि, वस्तु । न च तत्संग्रहनयपरिच्छेद्य वस्तु वस्त्वेकदेशत्वात् पर्यायवत् ततो यथा जीववस्तु पुद्गलादिवस्तु वा स्वद्रव्ये जीवत्वेऽन्वयिनि पुद्गलादित्वे वा पर्याये च स्वभावे ज्ञानादौ रूपादौ वास्ति न परद्रव्ये परखरूपे वा तथा परमं वस्तु सत्वमात्रे स्वद्रव्ये स्वपर्याये च जीवादिभेदप्रभेदेऽस्ति न परिकल्पिते सर्वथैकान्ते कथञ्चिदिति निरवद्यम् ।
पुनः अद्वैतवादीकी शंका है कि अंब यह बताओ कि वही पदार्थ स्वकीय द्रव्यमें है और परकीय द्रव्यमें नहीं है यह कैसे सिद्ध होगा ? क्योंकि उसका कोई गांठका अपना द्रव्य तो है नहीं, अन्यथा पर्यायपनका प्रसंग हो जायगा । यानी पर्यायोंके द्रव्य हुआ करते हैं, द्रव्यके स्वकीय द्रव्य नहीं होते हैं। जिससे कि वह द्रव्य वहां अपने द्रव्यमें आस्ति सिद्ध हो सके और उस प्रकृत द्रव्यका नातेदार कोई दूसरा द्रव्य भी जैनोंने नहीं माना है जिससे कि प्रकृतद्रव्यका नास्तिपन सिद्ध किया जाय । अब आचार्य कहते हैं कि यह शंका तो नहीं करना । क्योंकि हम द्रव्यको कथञ्चित् अस्ति और नास्तिपनस्वरूप मानते हैं । शुद्ध केवल महासत्ता " स्वद्रव्यमें है, परद्रव्यमें नहीं है " ऐसा हम नहीं कहते हैं ।