Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थो वार्तिके
अपने स्वरूप में वस्तु है । ऐसा कहनेपर परके स्वरूपमें वस्तु नहीं है ऐसा कथन करना विरुद्ध नहीं है । क्योंकि अपने स्वरूपका ग्रहण करना और परके स्वरूपोंका त्याग करना इस व्यवस्थासे वस्तुका वस्तु सिद्ध करा दिया जाता है। यह अकलंक सिद्धान्त है । अपने स्वरूपके ग्रहण समान यदि वस्तु पररूपका भी ग्रहण करेगा तब तो सभी प्रकारोंसे अपने और परके विभाग न होने का प्रसंग होगा । भारी सांकर्यदोष छा जायगा । किन्तु वह प्रसंग होना अयुक्त है । जो ब्रह्माद्वैतवादी या ज्ञानाद्वैतवादी आदि पंडित वस्तुको एक ही स्वरूप मानते हैं, उनके यहां भी पररूपसे रहित करनेपर ही तिस प्रकार आत्मा, ज्ञान, आदिका अद्वैतपन बन सकता है। अन्यथा द्वैत या घट, पट आदि पररूप करके भी उस अद्वैतपनकी सिद्धि हो जायगी । तब तो बहुत अच्छा हुआ । अद्वैतवादी भी एक, अनेक, स्वरूप वस्तुका निषेध नहीं कर सकते हैं । तथा पर स्वरूपके त्याग समान यदि वस्तु अपने स्वरूपका भी पृथग्भाव करती रहेगी तब तो वस्तु स्वके भावोंसे शून्य होकर निरुपाख्य हो जायगी, यह बहुत बुरा प्रसङ्ग प्राप्त हुवा । किसी भी प्रकारसे उसका ज्ञान या कथन नहीं किया जा सकेगा । किन्तु वस्तुका आकाश - कुसुमके समान वह रूपरहित हो जाना तो सिद्ध नहीं है । वे स्वयं एक अद्वैतको मान रहे हैं। ग्राह्यग्राहकभाव, वाच्यवाचकभाव आदि से रहित भी केवल अद्वैत संवेदनकी स्वरूपके ग्रहण करनेपर ही तिस प्रकारकी व्यवस्था हो सकती है । अन्यथा उस अद्वैतका निषेध हो जायगा । स्वका ग्रहण और अपनेसे विरुद्ध होरहे परका भी ग्रहण करनेसे तुल्यबल विरोध भी है ।
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तथा सर्व वस्तु स्वद्रव्येऽस्ति न परद्रव्ये तस्य स्वपरद्रव्यस्वीकारतिरस्कारव्यवस्थितिसाध्यत्वात् । स्वद्रव्यवत् परद्रव्यस्य स्वीकारे द्रव्याद्वैतप्रसक्तेः स्वपरद्रव्यविभागाभावात् । तच्च विरुद्धम् । जीवपुद्गलादिद्रव्याणां भिन्नलक्षणानां प्रसिद्धेः ।
अब संपूर्ण वस्तुओंको प्रत्येक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षासे न्यारा न्यारा सिद्ध करते हैं । तिस प्रकार सम्पूर्ण वस्तु अपने द्रव्यमें है। यानी अनन्तगुणोंके अखण्ड पिण्डरूप अपने देश में है परद्रव्यमें नहीं है । क्योंकि उस वस्तुकी व्यवस्था होना स्वकीय द्रव्यके स्वीकार करनेसे और परकीय द्रव्यके तिरस्कार करनेसे साधी जाती है । यदि वस्तु स्वद्रव्यके समान परद्रव्यको भी अंगीकार करे तो संसार में एक ही द्रव्य होनेका प्रसंग हो जायगा । स्वद्रव्य और परद्रव्यका विभाग न हो सकेगा। तथा चालिनी न्यायसे उस एक द्रव्यका भी अभाव हो जायगा । जीवको माननेपर जैसे पुद्गल आदिका अभाव हो जाता है, वैसे ही एक पुद्गलको स्वीकार कर लेनेपर जीव भी नहीं ठहर सकेगा । किन्तु वह बद्ध मुक्त, जड चेतन, सर्वज्ञ अल्पज्ञ, आदिका विभाग नहीं होना प्रतीतियोंसे विरुद्ध है। क्योंकि जीव, पुद्गल, आदि न्यारे न्यारे भिन्न लक्षणत्राले अनेक द्रव्य बाल गोपालों तक में प्रसिद्ध हो रहे हैं ।