Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
प्रसंग हो जायगा । अर्थात् जिस सद्धेतुमें पक्षवृतित्व धर्म है उसमें विपक्षकी अपेक्षा नास्तित्वधर्म भी है तभी वह समीचीन हेतु है । अन्यथा विरुद्ध या व्यभिचारी है । इस प्रकार हमारा साधनास्तित्वरूप उदाहरण सिद्ध हो गया । यह साधन यानी हेतुको माननेवालोंकी अपेक्षा उदाहरण बन गया और जो चार्वाक या अद्वैतवादी हेतुको स्वीकार नहीं करते हैं उनके लिए तो माना गया तत्त्व ही दृष्टान्त बना दिया जायगा । अपने अभीष्ट जड, पृथ्वी आदि तत्वोंका अस्तिपन भी अनिष्ट चेतनरूप तत्त्वोंके नास्तित्व के साथ अविनाभावी सिद्ध है । अथवा अपने अभीष्ट चेतन, ब्रह्म तत्त्वका अस्तित्व अनिष्ट as, द्वैत आदि स्वरूपों के नास्तिपनके बिना नहीं हो सकता है । अन्यथा उन अभिप्रेत अपने तत्त्वों के साधने की व्यवस्था नहीं हो सकेगी । इस कारण उन उनके अभीष्ट तत्त्वोंको ही दृष्टान्त समझ लेना । दृष्टान्तका अर्थ अपने अपने साधने योग्य तत्त्वोंका अस्तित्व कर लेना चाहिये । सत्रको सन्तोष रहे यह हमारी आन्तरिक भावना है ।
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ननु च साध्याभावे साधनस्य नास्तित्वं नियतं साध्यसद्भावेऽस्तित्वमेव तत्कथं तत् प्रतिषेध्यत्वानुपपत्तेः । स्वरूपनास्तित्वं तु यत्तत्प्रतिषेध्यं तेनाविनाभावित्वेन स्वरूपास्तित्वस्य व्याघातस्तेनैव रूपेणास्ति नास्ति चेति प्रतीत्यभावात् । तथा स्वेष्टतत्वेऽस्तित्वमेवानिष्टतत्वे नास्तित्वमिति न तत्प्रतिषेध्यं येन तस्य तदविनाभावित्वं सिध्येत् । तेनैव तु रूपेण नास्तित्वं विप्रतिषिद्धमिति कथं निदर्शनं नाम प्रकृतसाध्ये स्यादिति चेन्न, हेतोत्रिरूपत्वादिविरोधात् । स्वेष्टतत्त्वविधौ चावधारणवैयर्थ्यात् ।
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इस बात पर बौद्धका पुनः पूर्वपक्ष है कि उक्त प्रकारके अस्तित्व, नास्तित्व, ये दो धर्म नहीं हैं। साध्यके न होनेपर साधनका नियमरूपसे नास्तिपन तो साध्यके होनेपर ही हेतुका अस्तिपन स्वरूप ही है तो फिर आप जैन उस नास्तित्वको अस्तिपनका निषेध करने योग्य धर्म कैसे कहते हैं ? घट घटका ही निषेध योग्यपना असिद्ध है । इस प्रकार पररूपसे नास्तिपन तो स्वरूपसे अस्तिपन ही है और जो स्वरूपसे नास्तिपनको उसका प्रतिषेध्य माना जायगा तब तो तिस स्वरूप नास्तिपनके साथ स्वरूप अस्तित्वका अविनाभावीपनसे कथन करनेमें व्याघात दोष है । तिस ही स्वरूप करके अस्ति और तिस ही अपने स्वरूपसे नास्ति इस प्रकारकी प्रामाणिक प्रतीति नहीं होती है । आप जैनोंने भी स्वरूप ही करके अस्तिपन और नास्तिपनकी व्यवस्था चार्वाक या ब्रह्माद्वैत वादियोंके लिये जो दृष्टान्त आपने दिया था उसपर भी अपने अभीष्ट तत्व अस्तिपन ही अनिष्टतत्त्वमें नास्तिपन है । इस कारण वह भी प्रतिषेध्य नहीं हुआ। जिससे कि उस अभिप्रेत अर्थके अस्तित्वका उस अनभिप्रेत अर्थके नास्तित्वके साथ अविनाभावना सिद्ध होवे, यानी एक ही धर्ममें अविनाभाव नहीं बनता है । जिस ही स्वरूप करके तो अस्तिपन होय और उस ही रूप करके नास्तिपन होय इस बात में तुल्यबल विरोध है । अर्थात् दोनों एक दूसरे के शीत, उष्ण, या सुन्द, उपसुन्द, अथवा मुनिरक्षक मुनिभक्षक शूकर, सिंहके समान
नहीं की है । तथा
यह कहना है कि