Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्यचिन्तामणिः
भी प्रत्यक्षसे स्वलक्षणकी सिद्धि मानी जायगी तब तो उस स्वलक्षणके अस्तित्वादि धर्मोकी भी निश्चयको पैदा न करनेवाले तिस ही प्रकारके प्रत्यक्षसे सिद्धि हो जावेगी। फिर आप स्वलक्षणको अस्तित्व आदि सात धर्मोसे रहित कैसे कह रहे हैं ?
प्रत्यक्षे स्वलक्षणमेव प्रतिभाति न तु कियन्तो धर्मा इत्ययुक्तं, सत्त्वादिधर्माकान्तस्यैव वस्तुनः प्रतिभासनात् । प्रत्यक्षादुत्तरकालमनिश्चिताः कथं प्रतिभासन्ते नाम तद्धर्मा इति चेत्, स्वलक्षणं कथम् ? स्वलक्षणत्वेन सामान्येन रूपेण निश्चितमेव तत् प्रत्यक्षपृष्ठभाविना निश्चयेनेति चेत्, तद्धर्माः कथं सामान्येनानिश्चिताः । सामान्याकारस्यावस्तुत्वात् तेन निश्चिता न ते वास्तवा स्युरिति चेत् स्वलक्षणं कथं तेन निश्चीयमानं वस्तुसत् । तथा तदवस्त्वेवेति चेत् यथा न निश्चीयते तथा वस्तुसदित्यायातम् । तच्चानुपपन्नम् । पुरुषायद्वैतवत् ।
प्रत्यक्ष प्रमाणमें स्वलक्षण ही स्पष्ट प्रतिभास रहा है, उसके कितने ही धर्म तो नहीं दीख रहे हैं। इस प्रकार बौद्धोंका कहना युक्तिरहित है। क्योंकि अस्तित्व, नास्तित्व, आदि धर्मोसे घिरी हुयी वस्तुका ही प्रत्यक्ष द्वारा प्रतिभास हो रहा है। बौद्ध पूंछते हैं कि प्रत्यक्षसे पीछे उत्तरकालमें उसके धर्म होकर नहीं निश्चित किये गये अस्तित्वादिक धर्म भला कैसे प्रतिभास हो रहे हैं ? अर्थात् किसी प्रकार उनका प्रतिभास भी हो जाय किन्तु पीछेके निश्चय हुये विना वे धर्म उस स्वलक्षणके हैं इसका नियम कैसे होय ?। ऐसा कहनेपर तो हम जैन उनसे पंछते हैं कि तम्हारा स्वलक्षण भी कैसे प्रतिभास रहा है ? अर्थात् उसका भी तो प्रत्यक्षके पीछे निश्चय नहीं हुआ है ? बताओ ! इसपर आप बौद्ध यदि यों कहें कि वह स्वलक्षण तो प्रत्यक्षके पीछे होनेवाले निश्चयके द्वारा सामान्यस्वरूप स्वलक्षणपने करके निश्चित ही है, इसपर तो हम जैन भी कहते हैं कि इस स्वलक्षणके अस्तित्व आदि धर्म भी सामान्यस्वरूपसे निश्चित हो चुके हैं वे भला अनिश्चित क्यों समझे जावें ? इसपर बौद्ध यों कहेंगे कि विशेष ही वास्तविक पदार्थ है समान आकार तो अवस्तु है । इस कारण उस सामान्यपनेसे निश्चित किये गये वे धर्म वास्तविक न हो सकेंगे। इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हम पूछते हैं कि उस सामान्यपनेसे निश्चित किया गया स्वलक्षण तत्त्व भी भला वास्तविक सद्भूत कैसे कहा जारहा है ? बताओ । इसपर बौद्ध यों कहते हैं कि तिस प्रकार उस अवास्तविक सामान्यसे निश्चय किया गया वह स्वलक्षण अवस्तु ही है । ऐसा कहनेपर तो यह अभिप्राय आया कि जिस प्रकार स्वलक्षणका निश्चय न किया जाय, उसी प्रकारसे वह परमार्थभूत है, किन्तु वह बात तो उपपत्तिसे रहित है, यानी इस ढंगसे स्वलक्षणकी सिद्धि नहीं हो सकती है। जैसे कि ब्रह्माद्वैतवादी, शद्वाद्वैतवादी, आदि अपने ब्रह्म, शब्द, आदिका निश्चय न कराते हुए कोरे सत्पनेसे या शब्दानुविद्धपनेसे अपने अभीष्ट तत्त्वोंको सिद्ध नहीं कर पाये हैं, वैसे ही बौद्ध अनिश्चित स्वलक्षणको नहीं सिद्ध कर सके हैं । अर्थात् जैसा वस्तुका स्वस्वरूप निश्चित हो रहा