Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
I
शरीर स्वकी विधि और परके निषेधसे अलंकृत नहीं है उसका देखना भी क्या होगा ? । इसके उत्तर में कोई बौद्ध यों कह रहे हैं कि जिस समय सम्पूर्ण मेरे, तेरे, अनित्य, है, नहीं, आदि विकपोका संहार ( निरोध ) कर दिया जाता है उस अवस्थामें विधि निषेधोंसे रहित स्वलक्षण तत्त्व दीख ही जाता है । हां ! उसके पीछे रागद्वेषकी दशामें चित्तवृत्तिके नाना विकल्पोंमें सलग्न हो जानेपर " यह इस प्रकारका है, दूसरे प्रकारसे नहीं है " इत्यादिक अनेक विधि प्रतिषेध रूप विशेषधर्मोकी प्रतीति होने लग जाती है । पहिले समयों में तिस प्रकार के झूठे विकल्पक ज्ञान हो चुके हैं, उनकी वासनाएं हृदयमें बैठी हुयी हैं । उन वासनाओंसे उत्पन्न हुयी विकल्प बुद्धिमें अस्ति, नास्ति, की कल्पना प्रवृत्त हो जाती है । केवल उस झूठी विकल्प बुद्धि में प्रतिभास रहे भी उन अस्ति नास्ति आदि विशेष धर्मोको जो कि स्वलक्षणमें नहीं प्रतिभास रहे हैं किसी भ्रान्तिके कारणसे वस्तुभूत स्वलक्षणमें भी अध्यारोप करता हुआ यह व्यवहार करनेवाला जीव उस स्वलक्षणको भी उन कल्पित धर्मस्वरूप मान रहा है। जैसे कोई भोला बालक या बन्दर दर्पण में स्थित प्रतिबिम्बके वास्तविक धर्मोको मान लेता है, अथवा कोई उद्धान्त पुरुष स्वप्नको देखकर भयभीत, कम्पित, हो जाता है । अपनी छतके ऊपर उदित हो रहे चन्द्रमाको शिशु अपना जान रहा है । सर्व साधारणका समान अधिकार या कुछ भी अधिकार न होते हुए भी बाजारकी चांदी, या कपडेमें मेरी तेरी कल्पना गढ ली जाती है परमार्थरूपसे विचारा जाय तो निरंश निर्विकल्पक स्वलक्षणोंमें उन धर्मोकी वृत्ति असम्भव है । वे धर्म यदि वस्तु ठीक ठीक होते तो वस्तुके पूर्ण स्वरूपको देखनेवाले प्रत्यक्ष ज्ञानमें अवश्य प्रतिभासको प्राप्त हो जाने चाहिये थे । जो वस्तुभूत हैं उनका निर्विकल्पक प्रत्यक्ष हो जाना प्रसंग प्राप्त है, तब तो एक पदार्थ में भी धर्मी धर्मोके अनेक ज्ञान हो जानेको रोका नहीं जा सकता है किन्तु हमारा मत ऐसा है कि " प्रत्यर्थ ज्ञानाभिनिवेशः " अंश, धर्म, पर्याय, इन सबसे रहित कोरा एक द्रव्य है उस एक अर्थका ही ज्ञान होता है, न एक पदार्थके अनेक ज्ञान हैं और न अनेक पदार्थों का एक ज्ञान होता है । तथा जैनोंके द्वारा माने गये दर्शनमें भी तो धर्मोका प्रतिभास नहीं होता है । इस प्रकार कोई सौगत कह रहे हैं । अब आचार्य बोलते हैं कि
1
।
।
तेऽपि पर्यनुयोज्याः । कुतः ? सकलधर्मविकलं स्वलक्षणमभिमतदशायां प्रतिभासमानं विनिश्चितमिति । प्रत्यक्षत एवेति चेन्न तस्यानिश्चायकत्वात् । निश्चयजनकत्वान्निश्चायकमेव तदिति चेत्, तर्ह्यस्तित्वादिधर्मनिश्चयजननात्तनिश्चयोऽपि प्रत्यक्षोऽस्तु तस्य तन्निश्चायकत्वोपपत्तेः अन्यथा स्वलक्षणनिश्चायकत्वस्य विरोधात् ।
बौद्ध भी इस प्रकार प्रश्नमालाको उठाकर आपादन करने योग्य हैं कि जिस दशामें विकल्पोंका संहार हो चुका है उस इष्ट दशामें स्वलक्षणतत्त्व सम्पूर्ण धर्मोसे रहित प्रतिभास रहा है, इस arrat आप बौद्धोंने विशेषरूपसे कैसे निश्चय किया ! बताओ ! यदि प्रत्यक्ष प्रमाणसे ही निश्चय
४०५