Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 419
________________ तलाकोकवार्तिक किया कहो सो तो ठीक नहीं । क्योंकि आपने उस प्रत्यक्षको निश्चय करानेवाला नहीं माना है । यदि आप यों कहे हैं कि प्रत्यक्षज्ञान स्वयं तो निश्चयरूप नहीं है। किन्तु निश्चयका जनक होनेसे वह प्रत्यक्ष प्रमाण निश्चायक अवश्य है। तब यों कहनेपर तो हम जैन कहते है कि अस्तिपन, नास्तिपन, आदि धर्मोका विकल्पज्ञानरूप निश्चयकी उत्पत्ति करनेसे उनका निश्चयज्ञान भी प्रत्यक्षप्रमाण हो जाओ । क्योंकि जो निश्चयको पैदा करता है वह प्रत्यक्ष आपने माना है। पीछेसे दृढतर निश्चयका उत्पाद करनेसे अस्तित्वादिके पहिले उस निश्चय ज्ञानको उसका निश्चायकपना सिद्ध हो रहा है अथवा प्रत्यक्षके पीछे निश्चय और उसके अनन्तर दृढतर निश्चयको करानेवाले उस प्रत्यक्षको उन अस्तित्वादिका निश्चायकपन सिद्ध हो रहा है। अन्यथा प्रत्यक्षको स्वलक्षणके निश्चायकपनेका विरोध होगा। ___यदि पुनरस्तित्वादिधर्मवासनावशात्तद्धर्मनिश्चयस्योत्पत्तेर्न प्रत्यक्षं तनिश्चयस्य जनकमिति मतं तदा खलक्षणं शुद्ध प्रतिभातमिति निश्चयस्यापि स्खलक्षणवासनाबलादुदयान तत्तस्य जनकं स्यात् । स्खलक्षणेऽनुभवनाभावे निश्चयायोगो न पुनरस्तित्वादिधर्मेष्विति खरुचिप्रकाशमात्रम् । .. यदि फिर बौद्धोंका इस प्रकार मन्तव्य है कि अस्तित्व आदि धर्मोकी हृदयमें बैठी हुयी मिथ्या वासनाओंकी अधीनतासे उन अस्तित्व आदि धर्मोका निश्चय उत्पन्न होता है । अतः उस निश्चयका जनक प्रत्यक्ष नहीं है, यानी मिथ्या संस्कार अस्तित्वादि धर्मोके निश्चायक हैं, प्रत्यक्ष प्रमाण उनका निश्चायक नहीं है, तब तो हम बौद्धोंके प्रति कहेंगे कि सम्पूर्ण धर्मोसे रहित शुद्ध स्वलक्षण प्रतिभासित हो गया है इस निश्चयकी भी उत्पत्ति स्खलक्षणकी झूठी वासनाके सामर्थ्यसे हो जायगी । अतः वह प्रत्यक्ष उस निश्चयका जनक न होवे । स्वलक्षण और अस्तित्वादि धर्म इन सबके निश्चय करानेका उपाय वासनाएं हो सकती हैं। खलक्षणमें प्रत्यक्षरूप अनुभवके न करनेपर पीछेसे निश्चय नहीं हो सकेगा, यह तो माना जाय और फिर अस्तित्वादि धर्मोमें प्रत्यक्षरूप अनुभव किये विना निश्चय न होना यह न माना जाय, इस प्रकार पक्षपात करना केवल अपनी मनमानी रुचिका प्रकाश करना मात्र है। जैसे कि दरिद्र मनुष्य अपने अनेक मनोरथोंमें रुचि करते रहते हैं। इस ढंगसे प्रामाणिक पुरुषोंके सन्मुख तत्त्वव्यवस्था नहीं हो सकती है। श्रुतिमात्रात्तद्धर्मनिश्चयोत्पत्तौ स्खलक्षणनिर्णयस्यापि तत एवोत्पत्तिरस्तु । तथा च न वस्तुतः स्खलक्षणस्य सिद्धिस्तद्धर्मवत् स्वलक्षणस्य तनिश्चयजननासमर्थादपि प्रत्यक्षात्सिद्धौ तद्धर्माणामपि तथाविधादेवाध्यक्षात् सिद्धिः स्यात् । वासनाओंसे न मानकर केवल शब्द सुननेसे ही उन अस्तित्वादि धर्मोके निश्चयकी उत्पत्ति मानी जायगी तो स्खलक्षणके निर्णयकी भी उत्पत्ति तिस ही सुनने मात्रसे हो जाओ, और तैसा होने पर तो वास्तविकरूपसे स्वलक्षणकी सिद्धि नहीं हुयी । जैसे कि उसके धर्म अस्तित्वादिकोंकी सिद्धि कोरे शबके सुननेसे नहीं होती। यदि उस स्वलक्षणके निश्चयको उत्पन्न करनेमें नहीं समर्थ

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