Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तवार्थकोकवार्तिके
मादिके विपर्यास यानी परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंसे सम्पूर्ण पदार्थ कथञ्चित् नास्तिस्वरूप ही हैं (२)। विधि और निषेधके क्रमसे उस द्वैतपनकी विवक्षासे सम्पूर्ण पदार्थ कथञ्चित् अस्तिनास्ति उमयरूप ही हैं ( ३ )। अथवा अस्तित्व और निषेधकी युगपत् कथन विवक्षा होनेपर वह वस्तु अवक्तव्य ही है ( ४ )। तथा यथायोग्य उचित नयकी विवक्षा करनेसे यानी स्वरूपचतुष्टय और एक समयमें दोनोंके कहनेकी अपेक्षासे वस्तु कथञ्चित् अस्त्यवक्तव्यरूप ही है (५)। तिस उचित नयकी योजनासे ही यानी परचतुष्टय और युगपत् कथनकी विवक्षासे वस्तु कथञ्चित् नास्त्यवक्तव्य ही कही जाती है ( ६ )। तथा स्वचतुष्टय और परचतुष्टय एवं युगपत् कथनकी अर्पणा करनेसे वस्तु कथञ्चित् अस्तिनास्त्यवक्तव्य स्वरूप ही है . (७) । इस प्रकार धर्मोके अविरोधसे शब्दोंकी प्रवृत्ति द्वारा सात भंगोंके समुदायकी योजना हो जाती है। . न कस्मिन् वस्तुनि प्रश्नवशाविधिनिषेधयोर्व्यस्तयोः समस्तयोश्च कल्पनयोः सप्तधा वचनमार्गो विरुध्यते, तत्र तथाविधयोस्तयोः प्रतीतिसिद्धत्वादेकान्तमन्तरेण वस्तुत्वानुपपत्तेरसम्भवात् ।
प्रश्नके वशसे एक वस्तुमें न्यारे न्यारे विधि और निषेधकी अथवा मिले हुए विधि निषेधकी सत्य कल्पनाओंके हो जानेपर सात प्रकार वचन मार्ग प्रवर्तना विरुद्ध हो जाय, सो नहीं समझना । क्योंकि उस एक वस्तुमें तिस प्रकारके उन विधिनिषेधोंकी कल्पना करना प्रतीतियोंसे सिद्ध हो रहा है। एक ही धर्मस्वरूपके विना वस्तुपनकी उपपत्ति न होनेका असम्भव है । अर्थात् एकान्तपनेके आग्रहको छोडकर वस्तुलकी सिद्धि हो सकती है । एक एकको ही एकत्रित करनेसे अनेक बन जाते हैं। अकेला एक धर्म अवस्तु है और है भी तो नहीं । सम्पूर्ण वस्तुओंमें विधि और निषेधकी वस्तुभूत कल्पनाएं प्रतीतिसिद्ध हो रही हैं।
स्वलक्षणे तयोरपतीतेर्विकल्पाकारतया संवेदनान प्रतीतिसिद्धमिति चेत्, किं पुनय॑स्तसमस्ताभ्यां विधिप्रतिषेधाभ्यां शून्यं सलक्षणमुपलक्ष्यते कदाचित् ? संहृतसकलविकल्पावस्थायामुपलक्ष्यत एव तदनन्तरं व्युत्थितचित्तदशायामिदमित्थमस्त्यन्यथा नास्तीस्यादिविधिप्रतिषेधधर्मविशेषप्रतीतेः पूर्व तथाविधवासनोपजनितविकल्पबुद्धौ प्रवृत्तेः। केवलं तान् धर्मविशेषांस्तत्र प्रतिभासपानानपि कुतश्चिद्विभ्रमहेतोः स्वलक्षणेऽप्यारोपयंस्तदपि तद्धर्मात्मकं व्यवहारी मन्यते । वस्तुतस्तद्धर्माणामसम्भवात् । सम्भवे वा प्रत्यक्षे प्रतिभासमसंगादेकत्रापि नानाबुद्धीनां निवारयितुमशक्तेरिति केचित् ।
___ बौद्ध कहते हैं कि हमारे माने गये स्खलक्षण तत्त्वमें उन विधि निषेधोंकी प्रतीति नहीं हो रही है । वस्तुको नहीं छूनेवाले कोरे विकल्पाकार ज्ञानसे उनका संवेदन हो जाता है । अतः वे धर्म प्रतीतियोंसे सिद्ध नहीं हैं । ऐसा कहनेपर तो हम जैन उनसे पूछते हैं कि क्या फिर अकेले या मिले हुए विधि प्रतिषेधोंसे रहित स्वलक्षणको कभी आपने देखा है ? बताओ ! भला जिसका