Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
है, जैन सिद्धान्त अनुसार सहज योग्यता और संकेतग्रहणसे शब्द वाच्यअर्थका प्रतिपादन करते हैं, वह व्यवहारद्वारा संकेतग्रहण व्यक्त मोटी पर्यायोंमें या अशुद्धद्रव्य संसारी जीव और स्कन्धात्मक पुद्गलों में होता है । शुद्धद्रव्य और सूक्ष्म परिणामोंका जानना ही अतीव कठिन है, तथा शव द्वारा समझना, समझाना तो असम्भव है । अतः एकान्तरूपसे कोई भी पदार्थ सर्वथा अवक्तव्य भी नहीं है अथवा सर्वथा वक्तव्य भी नहीं है । प्रत्येक पदार्थके सदृश परिणामरूप अंश कहे जाते हैं और उसके सूक्ष्मअंश अर्थपर्याय, अविभागप्रतिच्छेद, नहीं कहे जा सकते हैं । अनेक द्रव्य ऐसे हैं जो कथमपि नहीं कहे जा सकते हैं। उनकी यहां विवक्षा नहीं है । वस्तुस्थितिको द्वाशांगवाणी भी नहीं पलट सकती है । सर्वत्र अनेकान्त व्याप रहा है ।
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कुतः समानेतरपरिणामा धर्मा इति चेत् स्वलक्षणानि कुत: ? तथा स्वकारणादुत्पत्तेरिति चेत् तुल्यमितरत्र । स्वलक्षणान्येककार्यकरणाकरणाभ्यां समानेतररूपाणीत्ययुक्तं, केषाञ्चिदेक कार्यकारिणामपि विसदृशत्वेक्षणात् कथमन्यथेन्द्रियविषयमनस्काराण गडूच्यादीनां च ज्ञानादेर्श्वरोपशमनादेवैककार्यस्य करणं भेदे स्वभावत एवोदाहरणार्हम् । चित्रकाष्ठकर्माद्यनेककार्यकारिणामपि मनुष्याणां समानत्वदर्शनात् समान इति प्रतीते - रन्यथानुपपत्तेः ।
ऊर्ध्वता और तिर्यक् सामान्यरूप समान परिणाम तथा पर्याय, व्यतिरेकरूप विशेष परिणाम, एवं अस्तित्व आदि ये वस्तुके धर्म कैसे सिद्ध हैं ? बताओ ! ऐसा आक्षेप करनेपर तो हम भी बौद्धोंसे पूंछते हैं कि तुम्हारे यहां स्वलक्षण तत्त्व कैसे सिद्ध माने गये हैं ? यदि तुम यों कहो कि तिस प्रकार अपने अपने कारणोंसे उत्पत्ति होनेसे वे स्वलक्षण हैं । तब यों बोलनेपर तो अन्यत्र ( दूसरी जगह ) भी यह समाधान समान है । अर्थात् समान परिणाम और विशेष परिणाम भी अपने अपने विशेष कारणोंसे उत्पन्न होकर वस्तुके धर्म बन रहे हैं । बौद्धोंके माने गये स्वलक्षण ही एक कार्यको करने और न करने की अपेक्षासे समान और विसमानस्वरूप हो जाते हैं । समान धर्म और विसदृश धर्म कोई न्यारे नहीं हैं, इस प्रकार कहना तो युक्तिरहित है। क्योंकि उसमें व्यभिचार देखा जाता है । एक कार्यको करनेवाले किन्हीं किन्हीं पदार्थोंके विसमानता देखी जाती है । अन्यथा इन्द्रिय, विषय और मनको ज्ञान, सुख आदिमेंसे किसी एक कार्यका करनापन भला कैसे सम्भव है ? अर्थात् इन्द्रिय पुद्गलकी बनी हुयी है उससे जानने योग्य विषय बाहर पडा हुआ है। और मन अन्तरंग इन्द्रिय है । किन्तु ये कई विजातीय पदार्थ एक ज्ञानरूप कार्यको करते हैं, तथा गिलोय, कुटकी, चिरायता, आदि पदार्थ प्रकृति ( तासीर) से भेद होनेपर भी ज्वरका उपशम, खांसी दूर करना आदि किसी भी एक कार्यको कर देते हैं । अन्यथा वे कोई औषधियां एक रोगको दूर कैसे करती ? अतः अनेक भी एक कार्यको करते हैं। इसमें इन्द्रिय आदिक और गड़ची ( गिलोय ) आदिक उदाहरण देने योग्य हैं । यह व्यभिचार हुआ, तथा चित्र लिखना, काठका