Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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अर्थका वाचकपन और विधिनिषेध उभयस्वरूप अर्थके एक साथ अवाचकपनसे भी शब्बी प्रतीति हो रही है।
इत्थमेवेत्यप्यसंगतमन्यथापि संप्रत्ययात् ।
इस छटवे ढंगसे ही अर्थात् प्रतिषेधरूप अर्थका वाचकपन और विधि निषेधरूप अर्थका एक साथ अवाचकपनेसे ही शब्दकी प्रतीति हो रही है यह कहना भी असंगत है। क्योंकि अन्य प्रकारों से भी यानी पांचवें, तीसरे, पहिले, आदि भंगोंसे भी शद्बकी प्रतीति हो रही है।
क्रमाक्रमाभ्यामुभयात्मनोऽर्थस्य वाचकश्चावाचकश्च नान्यथेत्यपि प्रतीतिविरुद्धं विधिमात्रादिप्रधानतयापि तस्य प्रसिद्धेरिति सप्तधा प्रवृत्तोऽर्थे शद्धः प्रतिपत्तव्यो विधिनिषेधविकल्पात् ।
शब्द क्रमसे विधि निषेधात्मक अर्थका वाचक है और अक्रमसे विधि निषेधद्वयरूप अर्थका अवाचक है । इस सातवें ढंगके सिवाय अन्य कोई प्रकार नहीं है । यह भी एकान्त करना प्रतीतियोंसे विरुद्ध पडता है । क्योंकि केवल विधि या अकेले निषेध आदि प्रथम, द्वितीय प्रमृति भंगोंकी प्रधानतासे भी उस शब्दकी प्रवृत्ति होना प्रसिद्ध है । इस कारण पूर्वोक्त एकान्तोंको समुदितकर सात प्रकारसे अर्थमें प्रवृत्त हो रहा शब्द मान लेना चाहिये । विधि और निषेधके अवाच्य को साथ लेकर सात भेद हो सकते हैं । अतः उक्त वार्तिकमें सात प्रकारसे शद्बकी प्रवृत्ति कही गयी समझनी चाहिये । वाच्य धर्म सात हैं । अतः उनके वाचक शब्दोंके विकल्प भी सात हैं।
तत्र प्रश्नवशात्कश्चिद्विधौ शब्दः प्रवर्तते । स्यादस्त्येवाखिलं यद्वत्स्वरूपादिचतुष्टयात् ॥ ४९ ॥ स्यानास्त्येव विपर्यासादिति कश्चिनिषेधने । स्याद्वैतमेव तद्वैतादित्यस्तित्वनिषेधयोः ॥ ५०॥ क्रमेण योगपद्याद्वा स्यादवक्तव्यमेव तत् । स्यादस्त्यवाच्यमेवेति यथोचितनयार्पणात् ॥ ५१ ॥ स्यान्नास्त्यवाच्यमेवेति तत एव निगद्यते। स्याद्वयावाच्यमेवेति सप्तभंग्यविरोधतः ॥ ५२ ॥
तिन सात प्रकारके वाचक शबोंमें कोई शब्द तो प्रश्नके वशसे विधान करनेमें प्रवृत्त रहा है। जैसे कि स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इन अपने स्वरूपभूत चार अवययोंसे सम्पूर्ण पदार्थ कथं-' ञ्चित् अस्तिरूप ही हैं ( १ )। तथा कोई शब्द यों निषेध करनेमें प्रवृत्त रहा है । जैसे, कि स्वरूपः