Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
. उन प्रमाण और हान आदि फलरूप बुद्धिका समयव्यवधान होनेके कारण भेद ही है। यह भी कहना पूर्वापर संगतिसे रहित है, क्योंकि ऐसा माननपर उन दोनोंका उपादान कारण एक आत्मा न हो सकेगा यह प्रसंग अच्छा नहीं । यदि नैयायिक या बौद्ध यों कहें कि उनका उपादान कारण भिन्न ही मान लिया जाय क्या हानि है ? सो यह कहना भी युक्तियोंसे रीता है । क्योंकि भिन्न सन्तानोंके समान प्रत्यभिज्ञान होनेका विरोध हो जायगा । अर्थात् जैसे देवदत्तसे जाने गये विषयका यज्ञदत्तके द्वारा हानोपादान नहीं होता है वैसे ही प्रमाण और फलज्ञानके भिन्न उपादान कारण मान लेनेपर जिसी मैंने जो अर्थ जाना है उसी मुझसे वह अर्थ छोडा जाता है या ग्रहण किया जाता है। इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान न हो सकेगा, किन्तु होता है । अतः प्रमाण और फलका सर्वथा भेद मानना उचित नहीं है। ____ यदा पुनरव्यवहितं व्यवहितं च फलं प्रमाणाद्व्यार्थादभिन्नं पर्यायार्थाद्भिन्नमिष्यते तदा न कश्चिद्विरोधस्तथापतीतेः।
और जब अज्ञाननिवृत्तिरूप साक्षात् फल तथा हान आदि बुद्धिरूप व्यवहित फल ये दोनों प्रमाणसे द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा अभिन्न माने जाय और पर्यायार्थिक नयसे भिन्न इष्ट किये जावें । तब तो किसी प्रकार कोई भी विरोध नहीं आता है । क्योंकि तिस रीतिसे प्रमाण और फलकी कथंचित् भेद अभेद स्वरूपकरके प्रतीति हो रही है । सर्वथा भेद या अभेद माननेपर प्रमाणफलपनेका विरोध है। तभी तो श्रीमाणिक्यनन्दी आचार्यने कहा है कि जो ही प्रमाता जाननेवाला है, वही तत्क्षण अज्ञानकी निवृत्तिको करता हुआ शीघ्र हानोपादान उपेक्षाओंको कर लेता है। अतः बौद्ध और नैयायिकोंके द्वारा माने गये अभेद एकान्त तथा भेद एकान्त दोनों युक्तिरहित हैं ।
तत्प्रमाणान्नयाच्च स्यात्तत्त्वस्याधिगमोपरः । स खार्थश्च परार्थश्च ज्ञानशद्वात्मकात्ततः ॥ ४७ ॥ ज्ञानं मत्यादिभेदेन वक्ष्यमाणं प्रपञ्चतः।
शद्वस्तु सप्तधा वृत्तो ज्ञेयो विधिनिषेधगः ॥४८॥ तिस कारण सूत्रका अर्थ सिद्ध हो जाता है कि प्रमाण और नयसे तत्त्वोंका अधिगम होता है जो कि प्रमाण और नयसे कथञ्चित् भिन्न है । ज्ञानस्वरूप उन प्रमाण और नयोंसे होता हुआ वह अधिगम स्वयं अपने लिये उपयोगी है । क्योंकि ज्ञान गुण आत्मामें ही जडा हुआ रहता है । दसरेकी ओर फेंका नहीं जा सकता है। तथा वचनस्वरूप उन प्रमाण और नयोंसे हुआ अधिगम दूसरोंके लिये उपयोगी है । क्योंकि शब्दको सुनकर संकेतज्ञ जन झट ज्ञान कर लेते हैं। वह प्रमाण स्वरूपज्ञान मति, श्रुत, आदि मेदों करके विस्तारसे भविष्य प्रथमें कहा जायगा । जो कि स्वार्थ