Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
उसी समय निजस्वरूपसे भिन्न सम्पूर्ण पदार्थों में प्रमाण आत्मक उपेक्षा बुद्धि हो रही है । विशेष अंशोंकी अपेक्षा प्रमाण और उपेक्षा बुद्धिमें कथञ्चित् भेद भी है ।
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पर्यायार्थार्पणाद्भेदो द्रव्यार्थादभिदास्तु नः । प्रमाणफलयोः साक्षादसाक्षादपि तत्त्वतः ॥ ४६ ॥
हम स्याद्वादियों के यहां पर्यायार्थिक नयकी प्रधानता की विवक्षा होनेपर प्रमाण और फलका भेद है, तथा द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानतासे अभेद रहो। और वास्तविक रूपले करणज्ञानरूप प्रमाणमें और अज्ञाननिवृत्तिरूप फलमें समयका व्यवधान नहीं है, अतः अभेद है। और प्रमाणके पीछे व्यवधान होनेवाले हान आदिके ज्ञानरूप फलसे भेद है । दोनोंका एक ही आत्मा उपादान है । इस कारण मी प्रमाण और फलमें अभेद है ।
साक्षात्प्रमाणफलयोरभेद एवेत्ययुक्तं पर्यायभेदशक्तिमन्तरेण करणसाधनस्य भावसाधनस्य च फलस्यानुपपत्तेः सर्वयैक्ये तयोरेकसाधनत्वापत्तेः करणाद्यनेककारकस्यै कत्रापि कल्पनामात्रादुपपत्तिरित्ति चेन्न तत्त्वतः संवेदनस्याकारकत्वानुषक्तेः न चाकारकं वस्तु कूटस्थवत् ।
प्रमाण और फलका साक्षात् अव्यवहित रूपसे अभेद ही है यह एकान्त करना अयुक्त है । क्योंकि पर्यायरूप शक्तियोंका भेद माने विना करणमें निरुक्ति कर साधा गया प्रमाण और भावमें युट् प्रत्यय कर साधागया फलरूप प्रमाण बन नहीं सकता है। यदि सभी प्रकार से उनमें एकपना ( अभेद ) माना जायगा तो दोनों प्रमाण शद्बोंकी करण या भावमेंसे किसी एक द्वारा ही मिरुक्ति कर सिद्ध हो जानेका प्रसंग हो जायगा । अकौआमेंसे ही शिलाजीत निकल आवे तो पर्वतपर जानेका क्लेश क्यों उठाया जाय ? किन्तु ऐसा है नहीं । यदि बौद्ध यों कहें कि करण आदि अनेक कार - कोंकी एक पदार्थमें भी केवल कल्पनासे ही सिद्धि हो सकती है । सभी कारक प्रायः कल्पित होते हैं, आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि यों तो संवेदनको वास्तविकरूपसे कारकपना प्राप्त न होगा । अश्वविषाणके समान अकारकपनेका प्रसंग हो जायगा । किन्तु बौद्धोंने संवेदनको करणकारक, कर्ताकारक, व्यवहृत किया है और देखो जो यथार्थरूप से अर्थक्रियाका कारक नहीं है, वह वस्तुभूत नहीं है, जैसे कि सांख्योंका कूटस्थ आत्मा । आप बौद्ध सांख्योंके प्रति अर्थक्रिया न करने की अपेक्षासे कूटस्थ आत्माको अवस्तुपनेका दोष लगाते हैं, उस ही प्रकार कारकों को वास्तविक रूपसे न माननेवाले क्षणिकवादी बौद्धोंके ऊपर वही दोष लग बैठता है ।
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तयोरसाक्षाद्भेद एवेत्यप्यसंगतं तदेकोपादानत्वाभावप्रसंगात् । न च तयोर्भिन्नोपादानवा युक्ता संतानान्तरवदनुसन्धानविरोधात् ।