Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थलोकवार्तिके
माना गया है और दूसरोंके लिये उपयोगी हो रहा शब्द तो विधि और निषेधका अवलम्ब लेकर सात प्रकारसे प्रवृत्त होता हुआ समझ लेना चाहिए । विशेष बात यह है कि स्वयं गानेमें या चिल्लाकर पाठ करनेमें शब्द स्वयंको भी उपयोगी हो जाता है। ऐसी दशामें श्रावण प्रत्यक्ष या श्रुतज्ञान करनेवाले उसी आत्मामें कथञ्चित् भेद है । दूसरोंका गाना सुनकर जैसा आनन्द आता है वैसा ही स्वयं गाना गाकर भी हर्ष विशेष होता है। यहां गाना गानेवाले और उसका आनन्द लेनेवाले आत्माके दो परिणाम हैं । इस अपेक्षा शब्द परार्थ हो गया वही पाठ करनेमें समझ लेना । कुछ तो पहिले समझे हुए थे और अपने ही शद्ध कानोंमें गये, अतः दृढ प्रतिपत्ति हो गयी। यहां भी दो परिणाम हैं। किसी समय एक ही आत्मा गुरु और चेला बन जाता है। अपने ही विचारोंसे निकाले गये नवीन तत्त्वसिद्धान्तको पुनः स्मरण रखनेके लिये पुस्तकमें लिख लेते हैं। अपनी आत्मासे हम स्वयं पढ़ते हैं तथा कभी कभी स्वयं अपने भावोंमें विशिष्ट ज्ञान कर लेते हैं, उसीसे शिष्यको ज्ञान हो जाता है। शब्द बोलनेकी आवश्यकता नहीं पडती है । यहां भी अव्यक्त, अनुक्त, शद्बोंके अभिप्राय मान लिये जाते हैं। दूसरी बात यह है कि स्वयं गायनमें शद्बोंके आलापका जो श्रावण प्रत्यक्ष हुआ है वह ज्ञान स्वके लिये उपयोगी है शब्द तो नहीं । जैनसिद्धान्त अगाध है, एकान्त नहीं है । अपेक्षासे अनेक धर्मोकी सिद्धि होती है। ___मत्यादिज्ञानं वक्ष्यमाणं तदात्मकं प्रमाणं स्वार्थ, शद्धात्मकं परार्थ, श्रुतविषयैकदेशज्ञानं नयो वक्ष्यमाणः स स्वार्थः शद्वात्मकः परार्थः कात्य॑तो देशतश्च तत्त्वार्थाधिगमः फलात्मा स च प्रमाणानयाच्च कथञ्चिद्भिन्न इति सूक्तं प्रमाणनयपूर्वकः।
आगे ग्रन्थमें कहे जानेवाले मति श्रुत आदिक ज्ञान प्रमाण हैं वे ज्ञान स्वरूप होते हुये तो स्वकीय आत्माके लिये हैं और शब्दस्वरूप वे दूसरे श्रोताओंके लिये हैं। " तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् " तथा श्रुतज्ञानसे जाने गये विषयके एकदेशको जाननेवाला नय जो कि आगे कहा जायगा, वह भी ज्ञान स्वरूप तो स्वके लिये है और शद्वस्वरूपनय दूसरे आत्माओंके प्रयोजनका साधक है। वचनको भी उपचारसे प्रमाण माना है। पूर्णरूपसे और एकदेशसे हुआ तत्त्वार्थीका अधिगम तो फलस्वरूप हैं। और वह साधकतम प्रमाण और नयसे कथंचित् भिन्न है । इस कारण श्रीउमास्वामी महाराजने बहुत अच्छा कहा था कि प्रमाण और नयको कारण मानकर हमको और सर्व श्रोताओंको अधिगम हो जाता है । विशेष यह है कि सभी गुणोंमेंसे अकेले ज्ञानका ही शब्दके द्वारा प्रतिपादन होता है। सुमेरुपर्वतका वर्णन, नन्दीश्वरका निरूपण, धर्मद्रव्यका कथनरूप रसका प्ररूपण, सम्यग्दर्शनका व्याख्यान करना इन सबका अभिप्राय यह है कि सुमेरु आदिके ज्ञानका प्रतिपादन किया गया है। तभी तो सुमेरुकी लम्बाई, चौडाई, ऊंचाई, सौमनसवन, पाण्डुकवनका विन्यास समझानेपर हमारी आत्मामें सुमेरुका ज्ञान उत्पन्न होता है। कोई मनुष्य अपने सुखदुःखका निरूपण करता है तो श्रोताकी आत्मामें सुख या दुःख उत्पन्न नहीं होता है,