Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यलोकवार्तिके
चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचितः सदा ॥ ४०॥ चितस्तु भावनेत्रादेः प्रमाणत्वं न वार्यते ।
तत्साधकतमत्वस्य कथंचिदुपपत्तितः ॥ ४१ ॥
यदि वैशेषिक या नैयायिक यों इष्ट करें कि " चक्षुषा प्रमीयते, धूमेन प्रमीयते, शद्वेन प्रमीयते” यानी चक्षु करके जाना जाता है, धूमसे अनुमिति हो जाती है । शबसे श्रुतज्ञान होता है इत्यादि स्थलोंपर अचेतन नेत्र, आदिक भी प्रमाण माने गये हैं, सो यह उनका कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उन जड कहे गये नेत्र आदिकोंको प्रमितिका प्रकृष्ट साधकपना सर्वदा नहीं है । प्रमितिका करण वस्तुतः ज्ञान ही है । ज्ञानका सहायक होनेसे चक्षुः आदिको उपचारसे करणपना मानकर स्थूल दृष्टिवाले वैयाकरणोंने करणमें तृतीया विभक्ति कर दी है। जड पदार्थ कभी भी ज्ञप्तिका करण नहीं हो सकता है। हां ! चेतनस्वरूप नेत्र आदि भावेन्द्रियोंको तो प्रमाणपना निषिद्ध नहीं है। क्योंकि उस प्रमिति क्रियामें प्रकृष्ट उपकारक करणपनेकी सिद्धि भावेन्द्रियोंमें किसी न किसी अपेक्षासे हो जाती है । लब्धि और उपयोगरूप भावेन्द्रियां चेतनस्वरूप हैं। चेतनको प्रमाणपना हमें अभीष्ट है।
साधकतमत्वं प्रमाणत्वेन व्याप्तं तदर्थपरिच्छित्तौ चक्षुरादेरुपलभ्यमानं प्रमाणत्वं साधयतीति यदीष्यते तदा तद्व्यचक्षुरादि भावचक्षुरादि वा ? न तावद्व्यनेत्रादि, तस्य साधकतमत्वासिद्धः। न हि तत्साधकतमं स्वार्थपरिच्छित्तावचेतनत्वाद्विषयवत् । यत्तु साधकतमं तच्चेतनं दृष्टं यथा विशेषणज्ञानं विशेष्यपरिच्छित्तौ । न च चेतनं पौद्गलिक द्रव्यनयनादीति न साधकतमं, यतः प्रमाणं सिद्धयेत् ।
प्रमितिके साधकतमपनेकी प्रमाणपनेके साथ व्याप्ति है । वह अर्थकी ज्ञप्तिमें साधकतमपना चक्षु आदि जड पदार्थोके भी दीख रहा है । अतः वह उनको प्रमाणफ्ना सिद्ध करा देवेगा । यदि इस प्रकार वैशेषिक मानेंगे तो हम जैन पूंछते हैं कि वह अर्थपरिच्छित्तिका करणपना द्रव्यचक्षु, द्रव्यकर्ण आदिको मानते हों या भावचक्षुः भावरसना आदिको मानते हो ? बताओ। देखो, इन्द्रियां दो प्रकारकी हैं। बाल, वृद्ध, सबको प्रतीत हो रहे नेत्र गोलकके भीतर बाहरके अवयव तो द्रव्येन्द्रिय हैं । इन्द्रियोंके निकट विद्यमान आत्माके प्रदेश भी द्रव्यन्द्रिय हैं | तथा कर्मवियोगसे होनेवाली आत्मविशुद्धिरूप लब्धि और उस लब्धि द्रव्यचक्षु आदिसे जन्य ज्ञानोपयोग, या दर्शनोपयोग, ये भावेन्द्रिय हैं.। तहां पहिले द्रव्यनेत्र आदिक तो प्रमितिके साधकतम नहीं हैं । क्योंकि उनको प्रमितिका प्रधान उपकारकपन असिद्ध है । अनुमान है कि वे द्रव्यनेत्र आदिक ( पक्ष)