Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
सर्वस्यार्थस्य प्रकाशकं कस्मान्नेति चेत्, स्वसंवेदनमपि पररूपस्य कस्मान्न प्रकाशकम् ? स्वरूपप्रकाशने योग्यतासद्भावात् । पररूपप्रकाशने तु तदभावादिति चेत्, प्रतिनियतार्थप्रकाशने सर्वप्रकाशनाभावात् समः परिहारः । प्रतीत्यनतिलंघनस्य।प्यविशेषात् ।
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बौद्ध यदि यों कहें कि जब ज्ञानमें विषयोंका आकार ही नहीं है तो बह घटज्ञान सभी का प्रकाशक क्यों नहीं हो जाता ? ऐसा कहनेपर तो हम जैन भी कह सकते हैं कि आप बौद्धों का निराकार स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भी ज्ञानके समान अन्य घट, पट, आदि स्वरूप स्वलक्षणोंका प्रकाशक क्यों नहीं हो जाता है ? बताओ ! । इसका उत्तर आप यदि यों कहें कि स्वसंवेदन की अपने स्वरूपको प्रकाश करनेमें योग्यता विद्यमान है, अन्य रूपके प्रकाशनमें तो योग्यता नहीं है । इस कारण वह स्वको ही जानता है । इस प्रकार कहनेपर तो हम स्याद्वादी भी कहते हैं कि घटज्ञानकी प्रतिनियत अर्थमें प्रकाश करनेकी योग्यता है । अतः उस घटज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण अर्थोका प्रकाशन नहीं हो सकता है । इस ढंगसे दोषका परिहार करना हमारा और आपका समान है । देवदत्त घरका दीपक परिमित पदार्थोंका ही प्रकाश कर सकता है। सूर्य भी पचास हजार योजन तक अपना प्रकाश फैंकता है। अधिक नहीं । निकटवर्ती या दूरवर्ती पदार्थोंसे कोई भाईचारा या शत्रुता तो नहीं है । हम क्या करें ? योग्यता ही इतनी है । योग्यताको मान लेनेपर तो प्रतीतिका उल्लंघन नहीं करना भी हमारे और तुम्हारे यहां अन्तररहित है ।
संवृत्या सारूप्येऽपि संवेदनस्य सारूप्यादधिगतिरित्ययुक्तं, तस्य द्विष्ठत्वादेकत्रासम्भवात् । ग्राह्यस्यः स्वरूपस्य ग्राहकात् स्वरूपाद्भेदकल्पनया तस्य तेन सारूप्यकल्पनाददोष इति चेत् । तदपि ग्राह्यं ग्राहकं च स्वरूपम् । यदि स्वसंविदितं तदान्यग्राह्यग्राहकस्वरूपकल्पने प्रत्येकमनवस्था । तदस्वसंविदितं चेत् कथं संवेदनस्वरूपमिति यत्किञ्चिदेतत् ।
: व्यवहारसे कल्पना कर संवेदनकी तदाकारतामें भी सारूप्यसे ही स्वका अधिगम होना मानना यह भी अयुक्त है । क्योंकि सदृशरूपता दोमें रहती है। संयोग, सादृश्य, सारूप्य, विभाग आदि द्विष्ठ पदार्थोंका एकमें रहना असम्भव है । बौद्ध फिर यों कहें कि हम स्वसंवेदन में दो अंश कल्पित करेंगे । एक ग्राह्य अंश, दूसरा ग्राहक अंश । यानी एक आकारको देनेवाला और दूसरा आकारको लेनेवाला । ग्राह्यस्वरूपकी ग्राहकस्वभाव स्वशरीरसे भेदकल्पना करके उसकी उसके साथ तदाकारता कल्पना कर लेनेसे कोई दोष नहीं आता है । ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूंछते हैं कि वे स्वसंवेदन के दोनों ग्राह्य और ग्राहक स्वरूप यदि स्वका संवेदन करनेवाले हैं, तब तो फिर इनमें दूसरे ग्राह्यग्राहक स्वरूपोंकी कल्पना की जायगी और वे भी प्रत्येक अंश ग्राह्य, ग्राहकरूप होकर स्वसंवेदी माने जायंगे । इस प्रकार एकके दो, और दोके छह, तथा छहके अठारह इत्यादि प्रकार से ग्राह्य ग्राहक अंशवाले स्वसंवेदनों की कल्पना करते करते अनवस्थादोष होगा। हां, अनवस्था