Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
वह आक्षेप करना ठीक नहीं हैं क्योंकि जब सम्पूर्ण धर्मोको गौणरूपसे आनना अभिप्रेत है और अंशीका प्रधानरूपसे जानना इष्ट है । तब उस अंशीमें भी मुख्यरूपसे द्रव्यार्थिक नयका ही व्यापार माना गया है । प्रमाणका नहीं । किन्तु जब धर्म और धर्मी दोनोंके समूहको प्रधानपनेकी विवक्षासे जानना अभीष्ट है । त+ उस ज्ञानको प्रमाणपनेसे निर्णय किया गया है । इस कारण प्रमाणसे भिन्न नयज्ञान है । भावार्थ-अंशीको प्रधान और अंशको गौण या अंशोंको प्रधान अंशीकों गौणरूपसे जाननेवाला ज्ञान नय है और अंश अंशी दोनोंको प्रधानरूपसे जाननेवाला ज्ञानप्रमाण है।
___ गुणीभूताखिलाशेंशिनि ज्ञानं नय एव तत्र द्रव्यार्थिकस्य व्यापारात् । प्रधानभावार्पितसकलांशे तु प्रमाणमिति नानिष्टापत्तिरंशिनोत्र ज्ञानस्य प्रमाणत्वेनाभ्युपगमात् । ततः प्रमाणादपर एव नयः।
___ गौण हो रहे हैं अंश जिसके ऐसे अंशीको विषय करनेवाला ज्ञान नय ही है। क्योंकि वहां द्रव्यार्थिक नयका जाननेके लिये व्यवहार हो रहा है । किन्तु प्रधानपनेसे विवक्षित हो रहे हैं सम्पूर्ण अंश जिसके ऐसे अंशीमें प्रवृत्त हो रहा ज्ञान तो प्रमाण है । इस प्रकार हम जैनोंको यहां कोई अनिष्ट प्रसंग हो जानेकी आपत्ति नहीं है। यहां प्रधान अंशवाले अंशीके ज्ञानको प्रमाणपनेसे हमने स्वीकार किया है । तिस कारण उस अंशीको जाननेवाले प्रमाणसे भिन्न ही नय है।
'नन्वेवमप्रमाणात्मको नयः कथमधिगमोपायः स्यान्मिथ्याज्ञानवदिति च न चोद्यम् । यस्मात्
यहां शंका है कि नय यदि इस प्रकार प्रमाणसे भिन्न है तो अप्रमाणस्वरूप नय भला जीवादिकोंके समीचीन अधिगम करनेका उपाय कैसे हो सकेगा ? जैसे कि मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञप्तिको नहीं करा सकता है । ग्रन्थकार समझाते हैं कि यह तो कुचोद्य न करना । जिस कारणसे कि
नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः। स्यात्प्रमाणेकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः ॥ २१ ॥
नयज्ञान न तो अप्रमाण है और न प्रमाणस्वरूप माना गया है। किन्तु वह ज्ञानस्वरूप होता हुआ प्रमाणका एकदेश तो हो सकेगा। सभी प्रकारोंसे कोई विरोध नहीं है । विरोध यहां उपलक्षण है । साथमें कोई अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, संशय, व्यभिचार आदि भी दोष नहीं आते हैं।
प्रमाणादपरो नयोऽप्रमाणमेवान्यथा व्याघातः सकृदेकस्य प्रमाणत्वाप्रमाणत्वनिषेधासम्भवात् । प्रमाणत्वनिषेधेनाप्रमाणत्वविधानादप्रमाणप्रतिषेधेन च प्रमाणत्वविधैर्गत्यन्तराभावादिति न चोध, प्रमाणेकदेशस्य गत्यन्तरस्य तद्भावात् । नहि तस्य प्रमाणत्वमेव