Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यलोकवार्तिके
सकोगे । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार दिये गये दूषण समीचीन नहीं है। क्यों कि उस अवयवीको अपने अंशोंसे सर्वथा भिन्न हम स्वीकार नहीं करते हैं। अंश और अंशीका सम्बन्ध कथञ्चित् तादात्म्य परिणाम ही प्रसिद्ध हो रहा है। उस तादात्म्य सम्बन्धकी ही समवायपनेसे सिद्धि की गयी है । अर्थात् वैशेषिकोंके माने गये नित्य, एक, और अनेकोंमें रहनेवाले समवायमें अनेक दूषण आते हैं । परिशेषमें वह समवाय कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्धरूप ही निर्दोष सिद्ध होता है । अंश और अंशी कथञ्चित् भिन्न होते हुए भी अभिन्न हैं । जबसे वे दोनों हैं, तभीसे कथञ्चित् तदात्मक परिणमन करते हुए ही चले आ रहे हैं, ऐसा सबको दीख रहा है।
__ न वांशांशिनीस्तादात्म्यातादात्म्ये विरुद्ध प्रत्यक्षतस्तथोपलम्भाभावप्रसंगात् । न च तथोपलम्भोनुमानेन बाध्यते तस्य तत्साधनत्वेन प्रवृत्तेः । तथाहि-ययोन कथञ्चित्तादात्म्यं तयोनीशांशिभावो यथा सह्यविन्ध्ययोः, अंशांशिभावश्चावयवावयविनोधैर्भधर्मिजोर्वा स्वेष्टयोरिति नैकान्तभेदः । तदेवं परमार्थतोंशांशिसद्भावात्सूक्तं वस्त्वंश एव तत्र च प्रवर्तमानो नयः।
अंश और अंशियोंका कथञ्चित् तदात्मक होना और कथञ्चित् तदात्मक न होकर कथञ्चित् भेद होना ये दोनों धर्म परस्परमें विरुद्ध नहीं है, यदि विरुद्ध माने जावेंगे तो प्रत्यक्षके द्वारा अंश और अंशीके तिस प्रकार भिन्न अभिन्न रूपसे दीखनेके अभावका प्रसंग होगा । परस्परमें कथंचित् भिन्न, अभिन्न, हो रहे तन्तु और पट तथा लेज और डोरा ये प्रत्यक्ष प्रमाणसे जाने जा रहे हैं। तथा तिस प्रकार अंश और अंशीका दीखना अनुमान प्रमाणसे भी बाधित नहीं है। वह अनुमान तो प्रत्युत उस प्रत्यक्षका साधक होकर प्रवर्त रहा है । तिसीको स्पष्ट कर दिखाते हैं कि जिन पदार्थोमें कथंचित् तादात्म्य नहीं है उनमें अंश अंशीपना भी नहीं है । जैसे कि दूरवर्ती उत्तर
और दक्षिणमें पडे हुए बिन्ध्याचल तथा सह्यपर्वतमें अवयव अवयवीपना नहीं है । कपाल घट, तन्तु पट, डोरा लेज, आदि अवयव अवयवियोंमें तथा ज्ञान आत्मा, प्रतिभास विज्ञान, रूप पुद्गल अथवा सत्त्व वस्तु, आदि अपने अपने इष्ट होरहे धर्म और धर्मियोंमें अंशअंशी भाव है। अतः उनमें कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध है। उनमें एकान्तसे भेद नहीं है। तिस कारण इस प्रकार परमार्थरूप करके अंशअंशीभावके विद्यमान होनेसे हमने इस सूत्रकी चौथी पांचवीं कारिकाओंमें बहुत अच्छा कहा था कि विकलादेशी वाक्यका विषय वस्तुका अंश ही है। अवस्तु नहीं है। उसमें प्रवर्त रहा स्व और अर्थके एकदेशका निर्णय स्वरूपमय ज्ञान है। भावार्थ—स्व और अर्थके एकदेशको निर्णय करनेवाला वस्त्वंशग्राही नय होता है । यहांतक उस प्रकरणका सन्दर्भ मिला दिया है।
स्वाथैकदेशव्यवसायफललक्षणो नयः प्रमाणमिति कश्चिदाह ।
अपने ज्ञानस्वरूप और विषयरूप अर्थके एकदेशका निर्णय करनारूप फल है, स्वरूप जिसका, ऐसा नयज्ञान तो प्रमाण हो जावेगा, इस प्रकार कोई कह रहा है।