Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
इस बातका आगेके प्रत्यक्ष प्रकरणमें विस्तारके साथ निवेदन कर दिया जावेगा । तिस कारण अब तक सिद्ध हुआ कि प्रमाण और नयोंके द्वारा अर्थोका निश्चयात्मक अधिगम होता है । प्रमाण नयोंसे अर्थोका अनिश्चयात्मक दर्शन या अनध्यवसाय स्वरूप ज्ञान नहीं होता है। यह विश्वास रक्खो क्योंकि सब ही प्रकारोंसे बौद्धोंका सिद्धान्त युक्तियोंसे सिद्ध नहीं हो सका है । यहांतक प्रकरणका उपसंहार कर दिया है।
पुरुषस्य स्वव्यवसाय एवाधिगमो नार्थव्यवसायस्तद्वयतिरेकेणार्थस्याभावादिति केचिद्वेदान्तवादिनः, तेऽपि न तात्त्विकाः । पुरुषाद्भिन्नस्याजीवार्थस्य जीवादिसूत्रे साधितत्वात् तब्यवसायस्यापि घटनात् ।
अठ्ठाइसवीं कारिकामें श्रीविद्यानन्द आचार्यने कण्ठोक्त कहा है कि प्रमाण और नयों करके स्वयं अपना और अर्थका विकल्प ( आकार ) करनेवाला निश्चय होता है। इसपर ब्रह्माद्वैतवादी कहते हैं कि आत्माके अपना व्यवसाय होनारूप अधिगम ही होता है । अर्थका निश्चय करना रूप अधिगम नहीं होता । क्योंकि उस ब्रह्मके अतिरिक्त बहिरंग अर्थ कोई नहीं है। इस प्रकार कोई वेदान्तवादी कह रहे हैं, वे भी वास्तविक तत्त्वोंको जाननेवाले नहीं हैं। क्योंकि आत्मासे भिन्न होरहे अजीव पदार्थको हमने चौथे " जीवाजीवास्रव " आदि सूत्रमें सिद्ध कर दिया है । अतः ज्ञान या आत्माके सिवाय उस अजीव अर्थका निर्णय होना भी घटित हो जाता है।
अर्थस्यैव व्यवसायो न स्वस्य स्वात्मनि क्रियाविरोधात् इत्यपरः सोऽपि यत्किञ्चनभाषी, स्वात्मन्येव क्रियायाः प्रतीतेः । स्वात्माहि क्रियायाः स्वरूपं यदि तदा कथं तत्र तद्विरोधः सर्वस्य वस्तुनः स्वरूपे विरोधानुषक्तेनिःस्वरूपत्वमसंगात् । क्रियावदात्मा स्वात्मा चेत्, तत्र तद्विरोधे क्रियायाः निराश्रयत्वं सर्वद्रव्यस्य च निष्क्रियत्वमुपढौकेत । न चैवम् । कर्मस्थायाः क्रियायाः कर्मणि कर्तृस्थायाः कर्तरि प्रतीयमानत्वात् ।
वैशेषिकका कहना है कि प्रमाण या नयों करके अकेले अर्थका ही निश्चय होता है, स्वयं अपना व्यवसाय नहीं हो पाता है । क्योंकि स्वयं की अपनी आत्मामें क्रिया होनेका विरोध है । कितनी ही पैनी तलवार क्यों न हो, स्वयं अपनेको आप ही नहीं काट सकती है। आचार्य समझाते हैं कि इस प्रकार किसी दूसरे वैशेषिक या नैयायिकका कहना है । वह भी जो कुछ मनमें आत्रे, वैसा कहनेवाला है, युक्त अयुक्तका विचार करनेवाला नहीं है । वास्तवमें देखा जाय तो सम्पूर्ण क्रियाओंकी अपनी आत्मामें ही प्रवृत्ति होना प्रतीत होरहा है । निश्चय नयसे घट, पट, गृह, आत्मा, लोक, आदि सम्पूर्ण पदार्थ अपने आपमें ही रहते हैं। व्यवहार नयसे भी दीपक अपना प्रकाश अपने आप करता है । स्वात्मामें क्रियाका होना विरुद्ध है ऐसा सिद्धान्त करनेपर