Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थकोकवार्तिके
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- बौद्ध कहते हैं अभ्यास, बुद्धिपाटव, प्रकरण, और अभिलाषीपनेसे उन वासनाओंका प्रबोध होना हम नहीं मानते हैं। किन्तु नील आदिकके निर्विकल्पक ज्ञानके अनन्तर उसका कार्य नील आदिका सविकल्पक ज्ञान होना देखा जाता है और क्षणिकत्वके ज्ञानके पश्चात् उसका विकल्पज्ञानरूप कार्य होता हुआ नहीं दीखता है। अतः नील आदिमें हुए उस निर्विकल्पक दर्शनके कार्यरूप विकल्पज्ञानसे नीलदर्शनकी विशेष सामर्थ्यका अनुमान कर लिया जाता है । वह अनुमानसे ज्ञात किया विलक्षण सामर्थ्य ही नील आदिककी विकल्पवासनाका उद्बोधक है। किन्तु वह विशेषसामर्थ्य क्षणिकत्वके दर्शनमें नहीं है । अतः उसकी विकल्पवासनाओंका प्रबोध नहीं हो पाता है । इस प्रकार बौद्धोंके माननेपर तब तो हम कहेंगे कि यह आपका कार्यकारण भाव ठीक है, कार्योंके अनुसार कारणोंमें सामर्थ्य मानना अच्छा मार्ग है। किन्तु आपके कहनेमें थोडीसी कसर है, उसको दूर कर दीजिये । एकदम पदार्थोंमें उत्पन्न हुए निश्चय ज्ञानके द्वारा अनुमान किया गया वह विशेषसामर्थ्य अर्थके ही साक्षात् निर्णय करनेका जनक हो जाओ ! नहीं देखे गये अप्रामाणिक पदार्थकी कल्पनासे क्या लाभ है ? अर्थात् अर्थसे पहिले निर्विकल्पक ज्ञान उत्पन्न करना और पीछे उस निर्विकल्पकी सामर्थ्यसे सविकल्पक ज्ञान पैदा होना, ऐसा क्रम दीखता नहीं है । किन्तु पहिलेसे ही एकदम वास्तविक अर्थका निश्चयात्मक ज्ञान हो जाता है । विशेष शक्तिका मानना तो आपको आवश्यक है ही, फिर शिरका चक्कर देकर नाक पकडनेके समान परम्परा डालनेकी क्या आवश्यकता है ? आप ही सोचो।
___ यतश्च सामर्थ्य विशेषाद्दर्शनं व्यवसायस्य जनकं तद्वासनायाश्च प्रबोधकं तत एवात्मा तज्जनकस्तत्मबोधकश्चास्तु । तथा च नान्येव विवादो दर्शनमात्मेति नार्थे तत्तदावरणविच्छेदविशिष्टस्यात्मन एवेन्द्रियादिबहिरंगकारणापेक्षस्य यथासम्भवं व्यवसायजनकत्वेनेष्टत्वात् तद्वयतिरकेण दर्शनस्याप्रतीतिकत्वाच्चेति निवेदयिष्यते प्रत्यक्षप्रकरणे । ततो नाव्यवसायात्मा प्रत्येयोधिगमोर्थानां सर्वथानुपपन्नत्वात् ।
दूसरी बात यह है कि निर्विकल्पक ज्ञान जिस विशेष शक्तिके बलसे निश्चयात्मक विकल्पज्ञानका उत्पादक है और उसकी वासनाका उद्बोधक है, तिसही सामर्थ्यसे आत्मा उस निश्चयका जनक और उसकी वासनाका प्रबोधक हो जाओ! एवं तिस प्रकार होनेपर तो हम स्याद्वादी और आप बोद्धोंके नाम रखनेमें ही विवाद है, सिद्धान्त अर्थमें कोई विवाद नहीं। जिसको आप दर्शन कहते हैं, वही हमारे यहां आत्मा है । उन उन ज्ञानावरणोंके क्षयोपशमरूप विशेष अपगमसे युक्त हुआ आत्मा ही इन्द्रिय, मनः, कचित् प्रकाश, आदि बहिरंग कारणोंकी अपेक्षा रखता हुआ यथायोग्य निश्चय ज्ञानका जनक होरहा है, ऐसा हम स्याद्वादियोंने इष्ट किया है। यह भी समझने एण्य है कि उस आत्मद्रव्यके अतिरिक्त कोई निर्विकल्पक दर्शन कभी प्रतीत भी नहीं हुआ है।