Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
और उभय अर्थका ज्ञान द्वारा निर्णय होता है यह अर्थ नहीं निकल सकता था। ज्ञानके द्वारा योग्य अर्थका ही ग्रहण होता है । अयोग्यका नहीं । ज्ञान महाराज प्रभु हैं दूरवर्तीको जान लें । निकटवर्तीको छोड़ दें। छोटेको जानें, मोटेको : न जानें । सगे कारणको न जानें, विना लग्गाके तटस्थ पदार्थोको जान लें । पवित्रोंको न जानें, अपवित्रोंको जान लें, योग्यताके विना उनको कोई पराधीन नहीं कर सकता है । मनमौजी सम्राट्के ऊपर पर्यनुयोग नहीं चलता है।
__ स्वरूपलक्षणेर्थे व्यवसायस्याप्रमाणेऽपि भावादतिव्याप्तिरिति चेत् न, तत्र सर्ववेदनस्य प्रमाणत्वोपगमात् । न च प्रमाणत्वाप्रमाणत्वयोरेका विरोधः, संवादासंवाददर्शनातथा व्यवस्थानात् । सर्वत्र प्रमाणेतरत्वयोस्तावन्मात्रायत्तत्वादिति वक्ष्यते ।
किसीका आक्षेप है कि यदि ज्ञानके स्वरूपको भी अर्थ मान लिया जायगा तो संशय, विपर्यय, अनध्यवसायरूप अप्रमाण ज्ञानोंमें भी प्रमाणका लक्षण पाया जा सकेगा। मिथ्याज्ञान भी अपने स्वरूपको जानते हैं । अतः जैनोंके ऊपर अतिव्याप्ति दोष लगा । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना । क्योंकि उस अपने स्वरूपको जाननेमें प्रमाण, अप्रमाण, रूप सभी ज्ञानोंको प्रमाणपना इष्ट किया गया है । " भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिवः " इस कारिकाके द्वारा श्री समन्तभद्र आचार्यने सभी सम्यग्ज्ञान या मिथ्याज्ञानोंको स्वांशमें प्रमाणपन माना है । अतः . लक्ष्यमें लक्षण चले जानेसे अतिव्याप्तिका भय नहीं है। एक मिथ्याज्ञानमें स्वको जाननेकी अपेक्षा प्रमाणपन और बहिरंग चांदी, स्थाणु, आदि विषयोंको जाननेकी अपेक्षा अप्रमाणपनाका कोई विरोध नहीं है। क्योंकि स्वांशको जाननेमें संवाद और बहिरंग विषयको जाननेमें विसंवाद देखा जाता है। अतः एक मिथ्याज्ञानमें प्रमाण और अप्रमाणपनेकी व्यवस्था हो रही है । सभी ज्ञानोंमें प्रमाणपना और अप्रमापना केवल उतने संवाद और विसंवादके अधीन ही माना जाता है। इस बातको आगेके ग्रन्थमें और भी स्पष्ट कह दिया जावेगा। स्वविषयकी निश्चितिको संवाद कहते हैं और स्व विषयकी अनिश्चिति या निष्फलप्रवृतिजनकत्वको विसंवाद कहते हैं। .. . चक्षुर्दर्शनादौ किञ्चिदिति स्वार्थविनिश्चयस्य भावादतिव्याप्तिरित्यपि न शंकनीयम् । आकारग्रहणात् । न हि तत्र स्वार्थाकारस्य विनिश्चयोऽस्ति निराकारस्य सन्मात्रस्य तेनालोचनात् । ......................... . ... ... . . . ..
- पुनः आरेका है कि चाक्षुष प्रत्यक्ष या-रासनप्रत्यक्षके पूर्वमें होनेवाले चक्षुर्दर्शन या अचक्षुदर्शन आदिमें " कुछ है " ऐसा महासत्ताका आलोचनेवाला अपना और अर्थका निश्चय हो जाता है। अतः प्रमाणके लक्षणमें अंतिव्याप्ति दोष हुआ । ग्रन्थकार समझाते हैं कि यह भी शंका नहीं करनी चाहिये। क्योंकि लक्षणमें आकारका ग्रहण हो रहा है। " स्वार्थाकार विनिश्चयः " उस दर्शनमें अपना और अर्थका विकल्प करना रूप आकारका विनिश्चय नहीं है। आकाररहित केवल