Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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. तत्वार्थचिन्तामाणः ।
विषयके विना दूषण भला कहां रहे ! इस कारण उस दिये गये अनवस्थादोषको दोषाभासपना सिद्ध हुआ । स्वभाव और स्वभाववानोंका अग्नि और उष्णताके समान कथंचित् भेद इष्ट किया गया है ।
परिकल्पितयोर्मेदाभेदैकान्तयोस्तदूषणस्य प्रवृत्तौ सर्वत्र प्रवृत्तिप्रसंगात् कस्यचिदिष्टतत्वव्यवस्थानुपपत्तेः । स्वसंवेदनमात्रमपि हि स्वरूपं संवेदयमानं येनात्मना संवेदयते तस्य हेतोर्भेदाभेदैकान्तकल्पनायां यथोपवर्णितषणमवतरपि, किं पुनरन्यत्र ।
अपने अपने घरमें दूसरों द्वारा कल्पना कर लिये गये सर्वथा भेद और एकान्तरूपसे अभेदको मानकर यदि उन अनवस्था आदि दूषणों की प्रवृत्ति मानी जायगी, तब तो सभी प्रमाणसिद्ध पदार्थोमें अनेक दूषणोंकी प्रवृत्तिका प्रसंग हो जावेगा । किसी भी वादीके यहां अपने अपने अभीष्ट तत्त्वकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। आंखें दो होनी चाहिये और अंगूठा एक । काणेपनके समान दो अंगूठेका होना भी दोष है । काणा अपने घरमें एक अंगूठेका दृष्टान्त देकर निर्दोष नहीं हो सकता है और तिस ही प्रकार दो अंगूठेवाला भी दो आंखोंका दृष्टान्त देकर अपनेको निर्दोष सिद्ध नहीं कर सकता है । प्रमाणप्रसिद्ध प्रतीतियोंके द्वारा वस्तुकी व्यवस्था मानी जाती है। मनमानी . घरजानी नहीं चल सकती है। हम कहते हैं कि आप बौद्धोंका माना हुआ केवल संवेदनाद्वैत भी अपने स्वरूपका वेदन करता हुआ जिस स्वभावसे संवेदन करा रहा है, उस स्वभावका अपने कारणभूत संवेदनसे सर्वथा भेद या एकान्त अभेद माना जावेगा ठीक वैसा ही तो कुछ तो कल्पना करोंगे। आप बौद्धोंके ऊपर भी उन ही उक्त दूषणोंका अवतार होता है जिस प्रकार कि आपने हम जैनोंके ऊपर दूषण उठाये हैं। फिर अन्य स्थलोंकी तो क्या बात कही जाय ! भावार्थ-अपनी शाखाओंके बोझसे वृक्ष टूट रहा है । दीपक अपने प्रकाशकपन स्वभावसे प्रकाश कर रहा है। बांस अपनी लम्बाई या भारीपनसे नम रहा है। जल अपने द्रवत्वसे बह रहा है, आदि स्थानोंमें भी स्वभाव और स्वभाववानोंका सर्वथा भेद या अभेद माननेपर अनेक दूषण आजावेंगे । जब अद्वैतवादमें ही अनेक दोष उतर आते है तो सौत्रान्तिकोंके द्वैतवादमें तो सुलभतासे कल्पित दोषोंका प्रसार हो जायगा । किन्तु जैनोंके कथञ्चित् भेद, अभेद, रूप अभेध गढमें दोष सेनाका प्रवेश असम्भव है।
यदि पुनः सम्वेदनं संवेदनमेव, तस्य स्वरूपे वेद्यवेदकभावात् संवृत्या तत्स्वरूपं संवेदयत इति वचनम् । तदा स्वार्थव्यवसायः स्वार्थव्यवसाय एव स्वस्यार्थस्य च व्यवसाय इत्यपोद्धारकल्पनया नयव्यवहारात् । ततो नासम्भवः । ___ यदि फिर योगाचार यों कहें कि संवेदन तो संवेदन ही है हम बहिरंग पदार्थोको नहीं मानते हैं । उस विज्ञानके स्वरूपमें ही वेबपना और वेदकपना विद्यमान है। वह सम्वेदन अपने स्वरूपको जान रहा है। इस प्रकार भेदपक्षमें होनेवाला वचन केवल व्यवहारसे मान लिया गया है । वस्तुतः अकेले संवेदनमें कर्ता, कर्म, क्रियापना भला कैसे बन सकता है ! इस प्रकार बौद्धोंके