Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थ लोकवार्तिके
महासत्ताका तिस दर्शनके द्वारा सामान्य आलोचन होता है । अतः विशेषरूपसे स्वार्थ आकार के निश्चय करानेवाले प्रमाण, नय ज्ञान ही हैं ।
३८४
विपर्ययज्ञाने कस्यचित्कदाचित् कचित्स्वार्थाकारनिश्चयस्य भावादपि नातिव्याप्तिर्विग्रहणात् । विशेषेण देशकालनरान्तरापेक्षबाधकाभावरूपेण निश्चयो हि विनिश्वयः, स च विपर्ययज्ञाने नास्तीति निरवद्यः स्वार्थाकारविनिश्चयोऽधिगमः कार्त्स्यतः प्रमाणस्य देशतो नयानामभिन्नफलत्वेन कथञ्चित्मत्येयः प्रमाणनयतत्फलविद्भिः । एवञ्च प्रमाणनयैरधिगम इत्यत्र सूत्रे प्रमाणनयानां यत्करणत्वेन वचनं सूत्रकारस्य तदूर्घटनां यात्येव, तेभ्योऽधिगमस्य फलस्य कथञ्चिद्भेदसिद्धेः ।
किसी निरपेक्ष व्यक्तिको कभी घाम चमकनेपर किसी स्थलपर मृगतृष्णामें जलको जान लेने रूप हुये विपर्यय ज्ञानमें अपने और अर्थके आकारका निश्चय विद्यमान है तो भी प्रमाणके कार्य लक्षणकी अतिव्याप्ति नहीं है । क्योंकि विनिश्चयमें वि पदका ग्रहण हो रहा है । विशेषरूपसे अर्थात् दूसरे देश, काल, और मनुष्योंकी अपेक्षा बाधकोंके उत्पन्न न होने स्वरूप करके जो निश्चय है । वही विनिश्चय है । ऐसा विशेष निश्चय विपर्यज्ञानमें नहीं है। रेलगाडीमें जाते हुए मनुष्यको मध्याह्न के समय दूरस्थलमें भलें ही बालू, रेत या फूले हुये कासोंमें जलज्ञान हो जाय । किन्तु अन्य निकट रहनेवाले अभ्रान्त मनुष्योंको प्रातःकाल के समय वहां जलका विशेष निश्चय नहीं होता है । इस कारण उक्त कारिकाओंमें कही गयी यह बात निर्दोष सिद्ध हो गयी कि प्रमाणरूप करणका सर्वाङ्गरूपसे स्वार्थाकार विनिश्चय स्वरूप अधिगम अभिन्न फल है और एकदेशरूप से स्वार्थकारका विनिश्चयरूप अधिगम नयोंका अभिन्न फल है । इस ढंगसे प्रमाण, नय और उनके फलको जाननेवाले विद्वानों करके प्रमाणनयोंके अधिगमकी कथंचित् अभिन्न फलपनेसे प्रतीति कर लेनी चाहिये । भावार्थ - प्रमाण और नयकरण हैं तथा उनके द्वारा होनेवाला अधिगम फल है । वह करणज्ञानोंसे कथञ्चित् भिन्न है । कथञ्चित् अभिन्न है । ऐसी व्यवस्था होनेपर " प्रमाणनयैरधिगमः " ऐसे सूत्रमें प्रमाण और नयोंको जो तृतीयान्त करणपनेसे कथन किया है । वह सूत्रकारका वचन घटित हो ही जाता है । तिन प्रमाण और नयोंसे अधिगमरूपी फलका कथञ्चित् भेद होना प्रसिद्ध है। जैसे कि प्रकाशक प्रदीपका प्रकाशसे कथञ्चित् भेदाभेद है । सारूप्यस्य प्रमाणस्य स्वभावोऽधिगमः फलम् ।
तद्भेदः कल्पनामात्रादिति केचित्प्रपेदिरे ॥ ३० ॥
प्रमाण और फलका सर्वथा अभेद माननेवाले बौद्ध कहते हैं कि ज्ञानमें दर्पणके समान पदाका आकार पड जाता है। अतः संवेदनकी अर्थके साथ तदाकारता हो जाना प्रमाण है। कहा