Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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गया है कि " तस्मात्प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता" तदाकारतारूप प्रमाणका स्वभाव अधिगम है
और वही फल है । अतः केवल कल्पनासे उन प्रमाण, फलोंका भेद मान लिया जाता है । वास्तवमें नहीं है । इस प्रकार कोई समझ बैठे हैं।
संवेदनस्यार्थेन सारूप्यं प्रमाणं तत्र ग्राहकतया व्याप्रियमाणत्वात् । पुत्रस्य पित्रा सारूप्यवत् । पितृस्वरूपो हि पुत्रः पितृरूपं गृह्णातीति लोकोभिमन्यते न च तत्त्वतस्तस्य ग्राहको नीरूपत्वमसंगात् । तद्वदर्थस्वरूपसंवेदनमर्थ गृह्णातीति व्यवहरतीति तत् तस्य ग्राहकत्वात् प्रमाणमर्थाधिगतिः फलं तस्य तदर्थत्वात् । न च संवेदनादर्थसारूप्यमन्यदेव स्वसंवेद्यत्वादधिगतिवत् । न ह्यधिगतिः संवेदनादन्या तस्यानधिगमप्रसंगात् । ततस्तदेव प्रमाणं फलं न पुनः प्रमाणातत्फलं भिन्नमन्यत्र कल्पनामात्रादिति केचित् ।
सौगत कह रहे हैं कि संवेदनकी अर्थके साथ तदाकारता हो जाना प्रमाण है, क्योंकि उस आकारको देनेवाले विषयमें ग्राहकपनेसे प्रमाण व्यापार कर रहा है । जैसे कि पुत्रको पिताके साथ घटना करानेवाला पिताका सदृश आकार है । जननी और जनकसे उत्पन्न हुआ पुत्र पितास्वरूप होता हुआ ही पिताके रूपको ग्रहण कर लेता है । इस प्रकार सभी लौकिक जन मान रहे हैं । " आत्मा वै जायते पुत्रः ” । किन्तु वस्तुतः विचारा जाय तो पुत्र उस पिताके आकारको ग्रहण नहीं करता है । यदि ऐसा मान लिया जायगा तब तो पिता अपना स्वरूप जब पुत्रको दे चुकेगा तो स्वयं निःस्वरूप हो जायगा। अतः वह पुत्र प्रथमसे ही तदाकार उत्पन्न हुआ है, यह मानो । तिस ही के समान अर्थके आकारवाला ज्ञान अर्थको ग्रहण करता है । यह केवल लोक-व्यवहार है कि वह ज्ञान उस ज्ञेयका ग्राहक होनेसे प्रमाण है और अर्थका अधिगम होना उसका फल है। क्योंकि उस प्रमाणकी उत्पत्ति उस प्रमाणके अधिगमके लिये ही हुयी थी । किन्तु विचारा जाय तो अर्थाकारता संवेदनसे भिन्न ही नहीं है क्योंकि, वह स्वसंवेद्य है । जैसे कि स्वसंवेद्य होनेके कारण अधिगम प्रमाणसे भिन्न नहीं है। तथा अधिगम भी संवेदनसे भिन्न नहीं है। अन्यथा संवेदनको अज्ञान हो जानेका प्रसंग हो जायगा । तिस कारण वही प्रमाण है और वही फल है। तो फिर प्रमाणसे वह फल भिन्न कैसे भी नहीं है, केवल कल्पनाके सिवाय । यानी कल्पना भले ही करली जाय, हम तो सारूप्य प्रमाण और अधिगमको मिन्न नहीं मानते हैं । इस प्रकार कोई कह रहे हैं। यहांतक पूर्वपक्षीकी कारिकाका व्याख्यान हुआ। अब आचार्य बोलते हैं कि
तन्न युक्तं निरंशायाः संवित्तेईयरूपताम् ।
प्रतिकल्पयतां हेतुविशेषासम्भवित्वतः ॥ ३१ ॥ .. बौद्धोंका वह कथन युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि स्वभाव या अंशोंसे रहित कोरे संवेदनके