Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ लोकवार्तिक
आपसे हम पूंछते हैं कि क्रियाका स्वरूप ही यदि स्वात्मा है तब तो भला उस क्रियाके स्वरूपमें क्रियाके वर्तनेका विरोध क्यों होने लगा ? अन्यथा सभी वस्तुओंका अपने अपने स्वरूपमें विरोध होनेका प्रसंग होगा। तथा च सम्पूर्ण पदार्थीको स्वरूपरहितपनेका प्रसंग हो जावेगा। अग्निका स्वरूप उष्णता है । आत्माका स्वरूप ज्ञान है। यदि स्वरूपके साथ विरोध होने लग जाय तो अग्नि अनुष्ण हो जायगी और आत्मा अज्ञान जड हो जायगा। यदि स्वात्मामें क्रियाका विरोध है । यहां स्वात्माका अर्थक्रिया आधारस्वरूप अर्थ लिया जाय और ऐसा करनेपर उस क्रियावान्में उस क्रियाके रहनेका विरोध माना जाय । तब तो सम्पूर्ण क्रियायें आश्रयरहित हो जायगी और सम्पूर्ण द्रव्योंको क्रियारहितपनेका प्रसंग बढेगा। भावार्थ-जब क्रिया अपने अधिकरणमें ही न रहेगी। विरोध होनेके कारण क्रियावान् पदार्थ क्रियाको अपने पास न आने देंगे तो क्रिया अवश्य निराश्रय हो जायगी। और विना आश्रयके क्रिया रह नहीं सकती, तथा विरोध होनेके कारण क्रिया जब क्रियावानोंमें न वर्तेगी तो सम्पूर्ण जीव, पुद्गल द्रव्य क्रियारहित होते हुए जहांके तहां ठहरे रहेंगे। किन्तु इस प्रकार क्रियाओंका निराधारपना और द्रव्योंका क्रियारहितपना नहीं देखा जाता है। प्रत्युत देवदत्त भातको पकाता है। यहां कर्ममें रहनेवाली सकर्मक पाकक्रियाका भातरूप कर्ममें ठहरना प्रतीत हो रहा है और बालक डरता है । विद्यार्थी जागता है। यहां कर्तामें रहनेवाली डरना, जागना, रूप अकर्मक क्रियाएं बालक और विद्यार्थियोंमें ठहरती हुयी देखी जा रही हैं। यानी क्रिया साश्रय है
और द्रव्य सक्रिय है। ___यदि पुनः ज्ञानक्रियायाः कर्तृसमवायिन्याः स्वात्मनि कर्मतया विरोधस्ततोन्यत्रैव कर्मत्वदर्शनादिति मतं, तदा ज्ञानेनार्थमहं जानामीत्यत्र ज्ञानस्य करणतयापि विरोधः स्यात् क्रियातोऽन्यस्य करणत्वदर्शनात् । ज्ञानक्रियायाः करणज्ञानस्य चान्यत्वादविरोध इति चेत्, किं पुनः करणज्ञानं का वा ज्ञानक्रिया ? विशेषणज्ञानं करणं विशेष्यज्ञानं तत्फलत्वात् ज्ञानक्रियेति चेत्, स्यादेवं यदि विशेषणज्ञानेन विशेष्यं जानामीति प्रतीतिरुत्पद्येत् । न च कस्यचिदुत्पद्यते । विशेषणज्ञानेन विशेषणं विशेष्यज्ञानेन च विशेष्यं जानामीत्यनुभवात् । करणत्वेन ज्ञानक्रियायाः प्रतीयमानत्वादविरोधे कर्मत्वेनाप्यत एवाविरोधोऽस्तु, विशेषाभावात् ।
- यदि फिर किसीका यह मन्तव्य होय कि कर्तामें समवाय सम्बन्धसे रहनेवाली सकर्मक ज्ञानक्रियाका स्वयं अपने स्वरूप कर्मपनेसे रहनेका विरोध है। क्योंकि उस अपने स्वरूपसे मिन्न पदार्थमें ही कर्मपना देखा जाता है । देवदत्त लड्डको खाता है । यहां खानेवाला देवदत्त है, लड्डुका खाना है, खानारूप क्रिया स्वयं खानेमें नहीं रहती । भक्षणका भक्षण नहीं हो सकता है । इसीके सदृश घटका ज्ञान हो सकता है । ज्ञानका स्वयं ज्ञान नहीं हो सकता है । एक ज्ञानको