Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
कोई कहता है कि जिस स्वरूप करके उस एकदेशरूप नयका प्रमाणसे अपेक्षाकृत भेद माना गया है तिस स्वरूपसे नयको अप्रमाणपना आया और जिस स्वरूप करके प्रमाणसे नयका अपेक्षाकृत अभेद है उस स्वरूपसे एकदेश नयको प्रमाणपना ही प्राप्त होगा। अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो कहना क्या हमको अनिष्ट है ? अर्थात् इष्ट है । हम नयज्ञानमें एक एक देशसे प्रमाणपन और अप्रमाणपन दोनों इष्ट करते हैं । हां, नयको सम्पूर्णपनेसे प्रमाणपन और अप्रमाणपनेका निषेध किया गया है, जैसे कि समुद्रके एकदेशको तिस प्रकार पूर्णरूपसे समुद्रपन और असमुद्रपनका निषेध किया जाता है । हां एक अंशसे उसमें दोनों धर्म विद्यमान हैं।
___ कात्स्न्यैन प्रमाण नयः संवादकत्वात्स्वेष्टप्रमाणवदिति चेन्न, अस्यैकदेशेन संवादकत्वात् कात्स्न्येन तदसिद्धेः । कथमेव प्रत्यक्षादेस्ततः प्रमाणत्वसिद्धिस्तस्यैकदेशेन संवादकत्वादिति चेन्न, कतिपयपर्यायात्मकद्रव्ये तस्य तत्त्वोपगमात् । तथैव सकलादेशित्वप्रमाणत्वेनाभिधानात् सकलादेशः प्रमाणाधीन इति ।
__यहां कोई अनुमान करता है कि नय (पक्ष) सम्पूर्णपनेसे प्रमाण है ( साध्य ) सफल प्रवृत्ति या समीचीन ज्ञप्ति करानेवाला होनेसे ( हेतु ) जैसे कि अपनेको इष्ट प्रत्यक्ष आदि प्रमाण प्रमाण हैं ( दृष्टान्त )। अअ आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि इस नयको एकअंश करके संवादकपना है। पूर्णरूपसे संवादकपना वह हेतु पक्षमें न रहनेके कारण असिद्ध हेत्वाभास है । इसपर पुनः कोई बोलता है कि तब तो प्रत्यक्ष, स्मृति आदिको उस संवादकपना • हेतुसे इस प्रकार प्रमागपना कैसे सिद्ध होगा ? क्योंकि वे अस्मदादिकोंके प्रत्यक्ष, प्रत्यभिज्ञान, आदिक भी तो एकदेश करके ही सम्बादक हैं । संपूर्णरूपसे सफल प्रवृत्ति करानेवाले नहीं हो सकते हैं । द्रव्यकी कुछ इनी गिनी पर्यायोंको जाननेवाला प्रत्यक्ष भला पूर्णरूपसे निर्णय करानेवाला संवादक कैसे हो सकता है ? ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि कितनी एक पर्यायस्वरूप द्रव्यमें प्रवर्त रहे उस प्रत्यक्षको पूर्णतासे वह संत्रादकपना इष्ट किया है । सकल वस्तुको कहनेवाले वाक्यका तिसही प्रकार प्रमाणपने करके कथन किया गया है । वस्तुका पूर्णरूपसे कथन करनारूप सकलादेश तो प्रमाणके अधीन है । भावार्थ-सर्वज्ञके अतिरिक्त अस्मदादिकोंके प्रमाणज्ञानोंको सकलादेशीपना यथायोग्य संभवतः ही माना जाता है वस्तुका जितना अंश हम लोग जान सकते हैं उसमें ही सकलपने और विकलपनेका विभाग कर दिया जाता है, उतने अंशमें प्रत्यक्ष, स्मरण, आदिको संवादकपना प्रसिद्ध हो ही रहा है, यह तात्पर्य है।
न च सकलादेशित्वमेव सत्यवं विकलादेशिनो नयस्यासत्यत्वप्रसंगात । न च नयोऽपि सकलादेशी, विकलादेशो नयाधीन इति वचनात् । नाप्यसत्यः सुनिश्चितासंभवद्वायत्वात् प्रमाणवत् । ततः सूक्तं सकलादेशि प्रमाणं विकलादेशिनो नयादभ्यहितमिति सर्वथा विरोधाभावात् ।