Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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प्रमाणादेकान्तेनाभिन्नस्यानिष्टेर्नाप्यप्रमाणत्वं भेदस्यैवानुयगमात् देशदेशिनोः कथञ्चि
द्भेदस्य साधनात् ।
इसका कारिका भाष्य यों है कि जैनोंके द्वारा प्रमाणसे भिन्न मान लिया गया नयज्ञान अप्रही है । अन्यथा यानी प्रमाणपने और अप्रमाणपने दोनोंका उसमें निषेध करोगे तो व्याघात दोष होगा । एक ही समय एक पदार्थमें विप्रतिषिद्ध प्रमाणपने और अप्रमाणपनेका निषेध करना असंभव है। अर्थात् जीव और अजीव या घट और अघट ये तुल्यबल विरोधी पदार्थ दोनों एक समय कहीं नहीं पाये जाते है । जो घट है, वह अघट नहीं और जो अघट है, वह घट नहीं है । 1 घटका निषेध करनेपर उसी समय अघटका विधान हो जावेगा और अघटका निषेध करनेपर उसी समय घटकी विधि होजावेगी । दोनोंका निषेध किसी वस्तु में एक समय नहीं कर सकते हो। ऐसे ही जीव अजीव में लगा लेना । जीवका निषेध करते ही उसी समय अजीव की विधि हो जाती है और अजीवके निषेध करनेपर तत्काल जीवकी विधि हो जाती है। दोनोंका एकदम किसीमें निषेध नहीं कर सकते हो। यहां प्रकरण प्राप्त नयये प्रमाणपनेका निषेध करने से उसी समय अप्रमाणपनका विधान हो जावेगा और अप्रमाणपनेका प्रतिषेध करने से प्रमाणपकी विधि हो जावेगी । विप्रतिषिद्ध हो रहे दोनों धर्मोके युगपत् निषेध करनेका आप जैनों के पास अन्य कोई उपाय नहीं है । दो नाव या दो घोडेपर चढनेवालेके समान वस्तुका विरुद्ध धर्मोसे आरूढ हो जानेपर पेट फटकर नाश हो जाता है। अब आचार्य महाराज कहते हैं कि यह कुचोद्य न करना। क्योंकि प्रमाणका एकदेशपन हमारे पास अन्य तीसरा उपाय विद्यमान है । जैसे सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद इन दोनोंसे न्यारा तीसरा कथंचित्भेद, अभेद प्रशस्त मार्ग है अथवा समुद्र और असमुद्र से भिन्न समुद्रका एकदेश है । तैसे ही प्रमाण और अप्रमाणसे भिन्न होता हुआ नय-ज्ञान प्रमाणका एकदेश है । उस नयको पूर्णरूपसे प्रमाणपना ही नहीं है । क्योंकि एकान्त करके प्रमाणसे अभिन्न नयको हमने इष्ट नहीं किया है । तथा वह नय सर्वथा अप्रमाणरूप भी नहीं है । क्योंकि एकान्तरूपकरके प्रमाणसे नयका भेद ही हमने स्वीकार नहीं किया है। देश और देशवान्का किसी अपेक्षासे भेद माना गया है । एकदेशरूप नयका और सर्वदेशीस्वरूप प्रमाणका कथंचित् भेद - हमने सिद्ध किया है। जहां सर्वथा दो ही प्रकार हैं । वहां त्रिप्रतिषिद्ध दोनोंका एकदम निषेध नहीं कर सकते हैं, किन्तु जहां तीसरा, चौथा, मार्ग अवशिष्ट है । वहां दोका निषेध करनेपर भी तीसरा पथ निकल आता है ।
तत्वार्थचिन्तामा
येनात्मना प्रमाणं तदेकदेशस्य भेदस्तेनाप्रमाणत्वं येनाभेदस्तेन प्रमाणत्वमेवं स्यादिति त् किमनिष्टं देशतः प्रमाणाप्रमाणत्वयोरिष्टवात्, सामस्त्येन नयस्यं तन्निषेधात् समुद्रैकदेशस्य तथासमुद्रत्वासमुद्रत्वनिषेधवत् ।