Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामाणः
-
वस्तुके सकल अंगोंको कथन करनारूप सकलादेशीपन ही अकेला सत्य नहीं है । यों तो वस्तुके विकल अंगका निरूपण करनेवाले नयको असत्यपनेका प्रसंग होगा, जो कि इष्ट नहीं है। मिश्रित अन्नोंके स्वाद समान प्रत्येक अन्नमें भी गम्भीर स्वाद है। इस प्रसंगको दूर करनेके लिये नयको भी सकलादेशी कह देना ठीक नहीं पड़ेगा। क्योंकि विकल आदेश करना नयके अधीन है। ऐसा शास्त्रोंमें कहा गया है। और वह वस्तुका एकदेशी निरूपण करना रूप विकलादेश या नयज्ञान असत्य भी नहीं है। क्योंकि प्रमाण ज्ञानकी सस्यताके समान बाधक प्रमाणोंका भले प्रकार निश्चयरूपसे असम्भव होनेके कारण नयज्ञान भी सत्य माना गया है। तिस कारण हमने इस सूत्रकी तीसरी वार्तिकमें बहुत अच्छा कहा था कि सकलादेशी प्रमाण उस विकलादेशी नयसे अधिक पूज्य है । इस प्रकार कहनेमें सभी प्रकारोंसे विरोधका अभाव है।
प्रमाणेन गृहीतस्य वस्तुनोंशेविगानतः । संप्रत्ययनिमित्तत्वात्प्रमाणाच्चेन्नयोर्चितः ॥ २२ ॥ नाशेषवस्तुनिर्णीतेः प्रमाणादेव कस्यचित् ।
तादृक् सामर्थ्यशून्यत्वात् सन्नयस्यापि सर्वदा ॥ २३ ॥
प्रमाणके द्वारा ग्रहण कर लिये गये वस्तुके अंशमें निर्दोषरूपसे भली प्रतीतिका निमित्त हो जानेके कारण नयज्ञान प्रमाणसे पूज्य है। अथवा प्रमाणसे जान लिये गये विषयके अवान्तर अंशमें कुछ संशय रह गया था। उस संशयको दूर कर समीचीन ज्ञप्तिका जनक होनेके कारण नयज्ञान प्रमाण से पूज्य है । इस प्रकार कटाक्ष होनेपर आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि चाहे किसी भी प्रमाणके सम्पूर्णरूपसे वस्तुका निर्णय करना प्रमाणज्ञानसे ही होता हुआ संभव है। समीचीन से भी अधिक समीचीन किसी भी नयकी तिस प्रकार सम्पूर्ण वस्तुका निर्णय कर लेनेकी सदा ( कभी भी ) सामर्थ्य नहीं है। अर्थात् वस्तुको संपूर्णरूपसे प्रमाण ज्ञान जानता है । प्रमाणसे जान चुकनेपर उस वस्तुके एक अंशमें नयज्ञान प्रवर्तता है । ऐसी दशामें प्रमाणसे अधिक पूज्य नयज्ञान नहीं हो सकता है। एक विदग्ध विद्वान् व्याकरण, सिद्धांत, न्याय, साहित्य, दर्शन आदि अनेक विषयोंका पारगामी है । और दूसरा विद्वान् केवल साहित्यके कुछ विशेष अंशोंको ही भले प्रकार जानता है । फिर भी वह उस षट् शास्त्रीसे अधिक आदरणीय कैसे भी नहीं माना जाता है ।
नयोऽभ्यर्हितः प्रमाणात् तद्विषयांशे विप्रतिपत्तौ संप्रत्ययहेतुत्वादिति चेन्न, कस्यचित्रमाणादेवाशेषवस्तुनिर्णयात्तद्विषयांशे विप्रतिपत्तेरसम्भवानयात् संप्रत्ययासिद्धः। कस्यचित् तत्संभवे नयात्संपत्ययसिद्धिरिति चेत्, सकले वस्तुनि विप्रतिपत्तौ प्रमाणात् किं न