Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
प्रमाण की सिद्धि है वैसे ही प्रथम अध्यायके अन्तिम सूत्रमें नय कही जावेंगी। वे भी श्रु मूलक ही सिद्ध होवेंगी ।
यथैव हि श्रुतं प्रमाणमधिगमजसम्यग्दर्शननिबन्धनतत्त्वार्थाधिगमोपायभूतं मत्यव - धिमन:पर्यय केवलात्मकं च वक्ष्यमाणं तथा श्रुतमूला नयाः सिद्धास्तेषां परोक्षाकारतया वृत्तेः ।
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तात्पर्य यह है कि जैसे ही प्रमाणभूत श्रुतज्ञान अधिगमसे उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शनके कारण होरही तत्त्वार्थोकी अधिगतिका समीचीन उपाय होता हुआ सिद्ध है । और मति, अवधि, मन:पर्यय, और केवलज्ञान स्वरूप प्रमाणोंकी सिद्धि भी भविष्य ग्रन्थमें कह दी जावेगी । तिस ही प्रकार श्रुतज्ञानको मूल कारण मानकर सिद्ध हो रहे नयज्ञान भी कह दिये जायेंगे । अर्थात् मति आदि पांच ज्ञानोंको जैसे प्रमाणपना कहा जावेगा, तैसे ही श्रुतमूलक नैगम आदिको नयपना भी सिद्ध कर दिया जावेगा । प्रमाण और नय दोनों करके पदार्थोंका अधिगम होता है । वे नय परोक्ष आकारपसे वर्त रहे हैं, यानी नयोंसे जाने गये पदार्थका अस्पष्ट प्रतिभास होता है । सर्वज्ञके पास नयज्ञान नहीं हैं। निर्विकल्पक समाधि अथवा उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणीमें श्रुतज्ञान तथा नयज्ञान होते हैं । अवधिज्ञान, मन:पर्यय, ज्ञानका वहां विशेष उपयोग नहीं हैं। हां ! कभी कभी अवधिज्ञान या मन:पर्ययज्ञानसे पदार्थका प्रत्यक्ष कर उसका ध्यान लगाया जा सकता है। पांच ज्ञानोंमें चार . ज्ञान अविचारक हैं। अकेला श्रुतज्ञान ही विचार करनेवाला है । नयज्ञान भी विचारक है। तभी तो श्रुतज्ञानको मूलकारण मानकर नयोंकी प्रवृत्ति मानी है ।
ततः केवलमूला नयास्त्रिकालगोचराशेषपदार्थांशेषु वर्तनादिति न युक्तमुत्पश्याम स्तद्वत्तेषां स्पष्टत्वप्रसंगात् । तर्हि स्पष्टस्याव धेर्मन:पर्ययस्य वा भेदाः खयमस्पष्टा न युज्यन्ते श्रुताख्यप्रमाणमूलत्वे तु नयानामस्पष्टावभासित्वेनाविरुद्धानां सूक्तं तेभ्यः प्रमाणस्याभ्यर्हितत्वात् प्राग्वचनम् ।
तिस ही कारण यानी नयोंके द्वारा परोक्ष ( अस्पष्ट ) प्रतिभास होनेके कारण ही हम इस कथनको युक्त नहीं समझते हैं कि तीनों काल सम्बन्धी संपूर्ण पदार्थोंके अंशोंमें वर्तनेके कारण नयोंका मूलकारण केवलज्ञान मान लिया जाय । क्योंकि उस केवलज्ञानके समान उन नयोंको भी स्पष्ट प्रतिभासीनका प्रसंग हो जावेगा । मूलके अनुसार शाखायें होती हैं । तब तो विशदस्वरूप अवधि अथवा मन:पर्ययज्ञानोंके भेद स्वयं अस्पष्ट होयं, यह भी तो युक्त नहीं है । इस कारण से भी नयज्ञान अवधि, मन:पर्ययके विशेष अंश नहीं कहे जा सकते हैं । किन्तु श्रुतज्ञान नामक प्रमाण ज्ञानको मूल कारण माननेपर तो नयोंका अस्पष्ट प्रतिभासीपनेसे कोई विरोध नहीं इस सूत्र की दूसरी वार्त्तिकमें बहुत ठीक कहा था कि अकेले श्रुतज्ञानसे जाने गये अंशको अविशदरूप जाननेवाले उन नयोंसे स्पष्ट और अस्पष्टरूप करके संपूर्ण सांश वस्तुओंको जाननेवाले केवलज्ञान,
। अतः