Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
न होनेसे सच भी नहीं है । इस कारण समुद्र में तीरको नहीं देखनेवाले पक्षीके अनुसार सत्त्वहेतु क्षणिकत्व के होनेपर ही अवस्थित रहता है । भावार्थ- पोतके काकको नाव (जहाज) के अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार सत्पदार्थोका क्षणिकपना ही शरण है । इस प्रकार बौद्धोंका व्याप्तिको सिद्ध करनेके लिये दूसरा प्रमाण देना तब सिद्ध हो सकता है जब कि क्रम और यौगपद्यका अर्थक्रिया के साथ और उस अर्थक्रियाका सत्त्वके साथ व्यापकव्याप्यभावसिद्ध हो जाये, किन्तु उसकी प्रत्यक्षसे तो सिद्धि होना सम्भव नहीं है । प्रत्यक्ष विचारोंको नहीं करता है, वह तो भभकेसे झट (एकदम) पैदा हो जाता है । चाहे इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष हो, भलें हीं केवलज्ञान हो। दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्षसे यदि उक्त संबन्ध निर्णीत हो जाते तो विवाद क्यों पडता ? | बालगोपाल सभी प्रसन्नतापूर्वक प्रत्यक्ष किये सिद्धान्तको मान लेते । तथा यदि दूसरे अनुमानों ही सत्त्वका व्यापक अर्थक्रियाको और अर्थक्रियाका व्यापक क्रम, यौगपद्यको साधोगे तब तो अवस्थादोष कैसे नहीं होगा ? क्योंकि उन अनुमान प्रमाणोंकी प्रवृत्ति भी व्याप्ति के विना न होगी और वहां व्याप्यव्यापकभावको सिद्ध करनेके लिये पुनः अनेक प्रमाणों की मूलतत्वको नाशने. बाली आकांक्षा बढती ही जावेगी । जो कि अनवस्थाका कारण है ।
सिद्धावपि नाक्षणिके क्रमयौगपद्ययोर्निवृत्तिसिद्धा शश्वदविच्छिन्नात्मन्येवानुभवेऽनेककालवर्तित्वलक्षणस्य क्रमस्योपपत्तेर्यौगपद्यस्य वाविच्छिन्नानेकप्रतिभासलक्षणस्य तत्रैव भावात् । अस्तुतोष न्याय से उस व्याप्यव्यापक भावके सिद्ध हो जानेपर भी अनेक क्षणोंतक रहनेवाले अक्षणिक क्रम और यौगपद्यकी निवृत्ति सिद्ध नहीं होती है। क्योंकि सदा ही (सर्वदा) नहीं विच्छिन्न स्वरूप वस्तुमें ही अनुभव ( विज्ञान ) द्वारा अनेक कालोंमें वर्तनेवालापन स्वरूप क्रमका होना बन पाता है और अविच्छिन्न होकर अनेक प्रतिभास कराना स्वरूप युगपत्पना भी अनेक क्षणवर्ती उस वस्तु 'अनुभव द्वारा पाया जाता है । भावार्थ - मृत्तिकाके अनेक क्षणोंतक अविच्छिन्नरूपसे स्थित रहनेपर ही स्थास, कोष, कुशूल, आदि पर्यायोंके क्रम बनते हैं और आत्मा के कालान्तरस्थायी होनेपर बाल्य, कुमार, यौवन, आदि अवस्थाओंके क्रम बनते हैं तथा घटके नील, मीठा, सुगन्ध, ठण्डा, गोल, आदि परिणामोंका युगपत्पना कालान्तरतक घटके स्थित रहनेपर ही बनता है । एक क्षण में ही समूल चूल घटके नष्ट हो जानेपर वे परिणाम कैसे भी नहीं हो सकते हैं । ऐसे ही आत्मा स्थिर होनेपर ही इच्छा, क्रोध, राग, द्वेष, मतिज्ञान, आदि परिणामोंका युगपतूपना बनता है। अन्यथा अश्व विषाणके समान असत्से उपादान कारण के विना किसीकी भी युगपत् उत्पत्ति नहीं हो सकती है । तैसे ही ज्ञानका अनेक कालोंमें वर्तना रूप क्रम और एकदम अनेक नील, पीत, आदिक आकारोंका प्रतिभास होनारूप यौगपद्य उस ज्ञानके अविच्छिन्न अनेक क्षणवर्ती अक्षणिक मानने पर ही बनते हैं । सर्वथा क्षणिक ज्ञानमें नहीं ।
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