Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
वश होकर यों ही उत्पन्न हो जाता है, जैसे कि चन्दनकी सुगन्धका । तब तो हम जैन आपादन कहेंगे कि शद्बके उच्चारण विना ही अकेले जातिज्ञानसे क्यों नहीं प्रवृत्ति हो जाती है ? अथवा जातिज्ञानसे हुयी वह प्रवृत्ति शब्दके विना हो गयी क्यों न कही जावे ? । यदि इसपर तुम यह कहो कि परम्परासे शद्बके द्वारा ही होती हुयी वह प्रवृत्ति कही जावेगी, ऐसा कहनेपर तो परम्परासे इन्द्रियोंके द्वारा होती हुयी ही वह प्रवृत्ति क्यों न कही जावे ? जैसे ही शबसे पहिले व्यक्तिकी प्रतीति होती है, उसके पीछे जातिका ज्ञान होता है, तदनन्तर जातिविशिष्ट उस व्यक्तिमें शाद्वबोध होनेसे प्रवृत्ति हो जाती है, इस कारण उस प्रवृत्तिका मूलकारण परम्परासे शब्द है । तैसे ही एक कोटी और बढकर हम यों कह देवेंगे कि श्रोत्र इन्द्रियसे शब्दको जानकर व्यक्तिको जाना, व्यक्तिसे जातिका ज्ञान किया। पीछे तद्विशिष्ट व्यक्तिका निर्णय कर शाद्वबोध करते हुए प्रतीति की । इस प्रकार उस प्रतीति या प्रवृत्तिका मूल कारण परम्परासे कर्ण ( कान ) इन्द्रिय हो जाओ ! यदि तुम यों कहो कि शाद्वबोध प्रकरणमें श्रोत्र इन्द्रियसे प्रवृत्ति होनेका व्यवहार नहीं होता है । किन्तु शबसे तैसी प्रवृत्ति हुयी यह व्यवहार होता है । अतः इस प्रकार श्रोत्रको परम्परासे मूल कारण नहीं माना जावेगा । ऐसा कहोगे तब तो व्यवहार होनेके अनुसार अन्य दूसरे स्थलमें भी समानरूपसे कह देना चाहिये, यानी गम्यमान जातिको भी शब्द्वका वाच्य अर्थ स्वीकार कर लो ! न्यायप्राप्त विषयका सर्वत्र समानरूपसे व्यवहार करना चाहिये ।
___ ततो न व्यक्तिपदार्थवादिनां जातिपदार्थवादिनामिव शद्धात्समीहितार्थे प्रवृत्तिः शद्धेनापरिच्छिन्न एव तत्र तेषां प्रवर्तनात् ।
तिस कारण सिद्ध हुआ कि जातिको पदका वाच्य अर्थ कहनेवाले मीमांसकोंके समान व्यक्ति को पदका वाच्य अर्थ कहनेवालोंके यहां भी शद्बके द्वारा अभीष्ट अर्थमें प्रवृत्ति न हो सकेगी। शब्दके द्वारा नहीं जाने हुए ही उस अर्थमें उन व्यक्तिवादियोंकी अन्धाधुन्ध प्रवृत्ति हो रही है, नियमानुसार नहीं । ऐसी ही जातिवादियोंकी अव्यवस्था है।
एतेन तवयस्यैव पदार्थत्वं निवारितम्। पक्षद्वयोक्तदोषस्याऽऽसक्तेः स्याद्वादविद्विषाम् ॥ ३१ ॥
इस उक्त कथन करके यह भी समझ लेना चाहिये कि गोत्व, घटत्व, आदि जाति और गौ, घट आदि व्यक्तियोंको मिलाकर दोनोंको ही पदका वाच्य अर्थपना किसीका स्वीकार करना खण्डन कर दिया जा चुका है। क्योंकि स्याद्वादसे द्वेष करनेवाले एकान्तवादियोंके यहां उभयपक्ष मानने पर भी दोनों पक्षमें कहे गये दोषोंके आनेका प्रसंग हो जाता है । अर्थात् परस्परमें अपेक्षा रखते हुए दो धर्मोके मिलानेपर स्याद्वादियोंके यहां कार्यसिद्धि हो जाती है । एक एक धीवर पीनसको