Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
२३१
अकेला कैसे भी नहीं उठा सकता है, किन्तु परस्परकी अपेक्षा रखते हुए दो मिलकर भारी पीनसको भी उठा लेते हैं। जातियुक्त व्यक्ति और व्यक्तियुक्त जाति ये अनेकान्त मतमें तो प्रवर्तक बन जाते हैं, किन्तु एकान्त मतोंमें दो अन्धोंके समान मिलकर भी जाति और व्यक्ति विचारी शादबोध प्रक्रियाके अनुसार प्रवर्तक नहीं हो सकती हैं । अतः प्रत्येक पक्षमें जो दोष आते हैं वे उभय पक्ष लेनेपर भी वैसे ही आ जायेंगे।
न हि जातिव्यक्ती परमभिन्न भिन्ने वा सर्वथा सम्भाव्येते येन पदार्थत्वेन युगपस्पतीमः । येन स्वभावेन भिन्ने तेनैवाभिन्ने इत्यपि विरुद्धम् ।
— जाति और व्यक्ति दोनों ही अत्यधिक सर्वथा अभिन्न अथवा सर्वथा भिन्न नहीं सम्भवते हैं, जिससे कि पदके वाच्य अर्थपने करके एक ही समयमें दोनों जान लिये जावें अर्थात् एकान्तवादियोंके द्वारा माने गये जाति और व्यक्ति कोई पदार्थ नहीं सिद्ध हो पाते हैं जिनको कि शद्ध अपने वाच्यअर्थ रूपसे कह सकें । जिस स्वभाव करके वे भिन्न हैं उस ही स्वभावसे वे जाति और व्यक्ति अभिन्न हैं यह कहना भी विरुद्ध पडता है जो अभेदका प्रयोजक है वह भेदका साधक नहीं हो सकता है । अन्यथा प्रफुल्लित कमलका भंग हो जावेगा। संयोग और विभागके न्यारे न्यारे कारणोंके समान भेद और अभेदके भी साधक न्यारे न्यारे माने जाते हैं।
क्रमेण जातिव्यक्त्योः परस्परानपेक्षयोः पदार्थत्वे पक्षद्वयोक्तदोषासक्तिः। कचिज्जाति शद्धात प्रतीत्य लक्षणया व्यक्तिं प्रतिपद्यते, कचियक्ति प्रतीत्य जातिमिति हि जातिव्यक्तिपदार्थवादिपक्षादेवासकृज्जातिव्यक्त्यात्मकवस्तुनः पदार्थत्वे किमनेन स्याद्वादविद्वेषेण ।
परस्परमें नहीं अपेक्षा रखते हुए जाति और व्यक्ति दोनोंको क्रम क्रम करके पदका वाच्य अर्थपना मानोगे तो दोनों पक्षोंमें कहे गये दोषोंका प्रसंग होगा। अर्थात् शब्दके द्वारा युगपत् और क्रमसे उनका ज्ञान नहीं हो सकेगा, कहीं कहीं तो शब्द के द्वारा जातिको जानकर श्रोता तात्पर्यानुपपत्ति अथवा अन्वयानुपपत्तिका प्रकरण होनेपर लक्षणा करके व्यक्तिको जान लेता है और कहीं परस्परकी अपेक्षा रखनेवाली व्यक्तिका निर्णय कर उसका विशेषणरूप जातिको श्रोता समझ लेता है, इस प्रकार जाति और व्यक्तिको पदका अर्थ कहनेवाले वादीके पक्षसे तो बार बार जातिव्यक्ति स्वरूप वस्तुको ही पदका वाच्य अर्थपना आता है । ऐसा माननेपर इस स्याद्वाद सिद्धान्तके साथ लम्बा द्वेष ठाननेसे भला क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ! भावार्थ-सदृशपरिणामरूप जाति और विशेष परिणामोंका आधार व्यक्ति इन दोनोंसे युगपत् तदात्मक होरही वस्तुको पदका वाच्य अर्थ माना यह तो स्याद्वादकी शरण लेनेसे ही बन सकता है । हम जैन जन शद्बका वाच्य तो वस्तुको मानते हैं, जो कि वस्तु जाति और व्यक्तिका तदात्मक पिण्ड है । न्यायसूत्र दूसरा अध्याय द्वितीय आन्हिकका ६८ वां सूत्र " व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः ” यह स्याद्वाद सिद्धान्तसे ही पुष्ट हो सकता है। . ....
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