Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
इस यथैवका अन्वय पांच या छह पंक्तिके पीछे आने वाले तथैवके साथ है । बौद्धोंकी ओरसे शद्वके द्वारा बहिरर्थका प्रकाश करनेमें इतने दोष दिये जाते हैं कि शद्वके द्वारा बहिर्भूत घट, पट, आदि अर्थीका प्रकाश होना माना जावेगा तो शद्वके उस वाध्य विषयमें अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों की प्रवृत्ति न हो सकेगी। क्योंकि सर्व स्वरूपों करके घट शद्वके द्वारा ही घट अर्थका ज्ञान हो जानेसे अर्थका सर्वांश निश्चय हो चुका है, निश्चय हो चुकने पर पुनः अर्थके किसी अंशमें संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप समारोप होता नहीं है, जिसको कि दूर करनेके लिये दूसरा प्रमाण उठाया जावे। किसी अंशमें उस समारोपका व्यवच्छेद ( दूर होना ) मान भी लिया जावे तो भी अन्य प्रमाणोंकी प्रवृत्ति होना नहीं बनता है। क्योंकि वस्तुके किसी भी एक धर्मका निश्चय हो जाने पर सम्पूर्ण धर्मोसे तदात्मक हुए धर्मीका भी निश्चय हो जाता है । अतः सम्पूर्ण धर्मोके ग्रहणका प्रसंग हो जावेगा, कारण कि एक एक धर्मके साथ सभी धर्मोका तथा धर्मीका अभेद हो रहा है । अन्यथा यानी यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकारोंसे मानोगे तो उस धर्मीसे अभिन्न एक धर्मका भी निश्चय हो जाना नहीं बन सकेगा, तादात्म्य सम्बन्धमें यही होता है कि या तो एकके प्रत्यक्ष हो जानेसे सभी तदात्मकोंका प्रत्यक्ष हो जावेगा अथवा जिनका निश्चय नहीं हुआ है उनसे अभिन्न माने गये प्रकृतका भी निश्चय न हो सकेगा । यदि उस धर्मसे धर्मको भिन्न माना जावे तो धर्मका निश्चय हो जानेपर भी धर्मका अथवा उसमें रहनेवाले अन्य धर्मोका निश्चय कर लेना अनिवार्य नहीं रहा । किन्तु लड्डुको जानकर उससे भिन्न थाली या पत्तलके खानेमें जैसे किसीकी प्रवृत्ति नहीं होती है, तैसे ही भिन्नधर्मका निश्चय हो जानेपर धर्मी में प्रवृत्ति होना नहीं घटेगा । क्योंकि उस धर्मीके साथ उस धर्मका कोई सम्बन्ध नहीं है । सब ही सम्बन्धोंका व्यापक सम्बन्ध उपकार्य उपकारकभाव है । जन्यजनकभाव, गुरुशिष्यभाव, कार्यकारणभाव, आधार्यआधेयभाव, पतिपत्नीभाव, सहचरभाव आदि सम्बन्धोंमें प्रतियोगीकी ओरसे अनुयोगीमें उपकार आता है, अथवा दोनोंसे परस्पर दोनोंमें उपकार आते हैं, शिष्यको गुरु पढाता है, सदाचार सिखाता है और शिष्य गुरुकी वैयावृत्त्य करता है, अनुकूल प्रवर्तता है, एक उपकारक है, दूसरा उपकृत है । भेद होनेपर भी व्यवहारमें सहचर सम्बन्ध होनेसे नारदके कहनेसे भिन्न भी पर्वतका ग्रहण हो जाता है । रससे रूपका ज्ञान कर लिया जाता है । किन्तु प्रकृतमें उपकार्य उपकारकभाव न होनेके कारण धर्मका धर्मीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । ऐसी दशामें धर्मके जान लेनेपर भी भला धर्मीमें प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी ? यदि उन धर्म धर्मीमें मिथः उपकार माना जावेगा तो हम बौद्ध पूंछेंगे कि धर्मीकी ओरसे धर्ममें उपकार पहुंचाया गया या धर्मकी ओरसे धर्मीमें उपकार पहुंचा है ? बताओ । धर्म लिये दी गयी उपकार स्वरूप शक्तिसे तदात्मक हो रहे अभिन्न धर्मीकी धर्मके द्वारा शद्वसे प्रतीति मानोगे, तब तो सम्पूर्णरूपसे धर्मीका ग्रहण हो जानारूप दोष वैसाका वैसा ही अवस्थित रहेगा । अभेद पक्ष धर्मीके लिये दी गयीं शक्तिओंसे अभिन्न धर्मका ज्ञान हो जानेसे भी यही दोष
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