Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
दियोंका भाषण अच्छा नहीं है। क्योंकि संवेदनसे अतिरिक्त सन्तानान्तर आदि पदार्थोके अभावको स्वतंत्ररूपसे व्यक्त जाने विना केवल स्वरूपके संवेदनकी सिद्धि ही नहीं हो सकती है,। एक बात यह भी तो है कि जिस प्रकारके क्षणिक निरशं स्वभाववाले संवेदनको बौद्ध इष्ट करते हैं वैसा उसका अनुभव नहीं होता है। यदि बौद्ध यों कहें कि स्पष्टज्ञान तो क्षणवर्ती पदार्थका ही होता है। स्पष्टरूपसे अपना अनुभव हो जाना ही क्षणिकपना है। अतः एकक्षणवर्ती अद्वैत संवेदनका ज्ञान होना अनभत हो रहा ही है, यह तो न कहना। क्योंकि एक क्षणमें स्थितिस्वभावसे रहनेका अर्थ अक्षणिकपना कहा गया है, अर्थात् जो एक क्षण भी स्थिरशील है वह ध्रुव है । उत्पाद, व्ययके समान ध्रुवपना भी एक समयमें स्वीकार किया है, तभी वह सत् पदार्थ हो सकेगा । यही ढंग पूर्वकालोंसे चला आ रहा है और आगे भी यही क्रम ( सिलसिला ) रहेगा।
___ अथ स्पष्टानुभवनमेवैकक्षणस्थायित्वं अनेकक्षणस्थायित्वे तद्विरोधात् । तत्र तदविरोधे वानाद्यनन्तस्पष्टानुभवप्रसंगाव । तथा चेदानी स्पष्टं वेदनमनुभवामीति प्रतीतिर्न स्यादिति मतम्, तदसत् । क्षणिकत्वे वेदनस्येदानीमनुभवामीति प्रतीतौ पूर्व पश्चाच्च तथा प्रतीतिविरोधात् । तदविरोधे वा कथमनाद्यनन्तसंवेदनसिद्धिर्न भवेत्, सर्वदेदानीमनुभवामीति प्रतीतिरेव हि नित्यता सैव च वर्तमानता तथाप्रतीतेविच्छेदाभावात्, ततो न क्षणिकसंवेदनसिद्धिः।
____ इसके अनन्तर पुनः बौद्ध कहनेका प्रारम्भ करते हैं कि स्पष्टरूपसे अनुभव होना ही एक क्षणमें स्थित रहनापन है । यदि ज्ञानको अनेकक्षणस्थायी माना जावेगा तो वह स्पष्ट अनुभव होना विरुद्ध पडेगा । पुनरपि यदि अनेक क्षणमें स्थायी होते हुए भी वहां उस स्पष्ट अनुभव होते रहनेका कोई विरोध न मानोगे तो अनादिकालसे अनन्तकाल तकके ज्ञानक्षणोंका स्पष्टरूप करके अनुभव होनेका प्रसंग होगा। सभी त्रिकालदर्शी हो जायेंगे और तब तो इसी समय क्षण मात्र ठहरे. हुए स्पष्ट संवेदनका मैं अनुभव कर रहा हूँ, इस प्रकारकी प्रतीति नहीं हो सकेगी । इस प्रकार बौद्धोंका मन्तव्य है। ग्रन्थकार कहते हैं कि सो वह प्रशस्त नहीं है। क्योंकि ज्ञानको यदि सर्वथा क्षणिक माना जावेगा तो इस समयमें अनुभव कर रहा हूं, ऐसी प्रतीति होनेपर पहिले और पीछे कालोंमें तिस प्रकारकी प्रतीति होनेका विरोध हो जावेगा। अनुभवामिका कर्ता तो ज्ञान ही है और वह ज्ञान सर्वथा क्षणिक है । ज्ञानका अन्वय माने विना पहिले पीछेके ज्ञानक्षणोंमें स्पष्ट अनुभव नहीं हो सकता है। यदि क्षणिक होते हुए भी उस पहिले पीछे सदा ही स्पष्ट अनुभव होते रहनेका कोई विरोध न माना जावेगा तब तो अनादि अनन्त संवेदनकी सिद्धि क्यों न हो जावेगी ? इस समय वर्तमानकालमें मैं अनुभव कर रहा हूं। इस प्रकार सदा प्रतीति होते रहना ही नित्यपना है और वही वर्तमानपना है। क्योंकि तिस प्रकारकी प्रतीति होनेका कभी अन्तराल नहीं पडा है । अत: अनेक कालस्थायी नित्य संवेदनकी सिद्धि हो जाती है। तिस कारण आपके क्षणिक सम्बेदनकी सिद्धि नहीं हुयी।